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पुण्य का उपार्जन कषाय की कमी से और पाप का उपार्जन कषाय की वृद्धि से --- 95
माणविजएणं मद्दवं जणयइ।
-उत्तराध्ययन सूत्र, अध्ययन 29, सूत्र 68 मद्दवयाए णं अणुस्सियत्तं जणयइ। अणुसियत्तेणं जीवे मिउ-मद्दवसंपन्ने अट्ठ-मयट्ठाणाई निट्ठावेइ।। -उत्तराध्ययन, अध्ययन 29, सूत्र 49
गोयमा! जाइअमएणं, कुलअमएणं, बलअमएणं, रूवअमएणं, तवअमएणं, सुयअमएणं, लाभअमएणं, इस्सरियअमएणं उच्चगोयकम्मासरीरं जाव पओगबंधे।
-भगवती सूत्र, शतक 8, उद्देशक 9 अर्थ-मान कषाय को मृदुता से जीते अर्थात् मान कषाय पर विजय से मृदुता गुण प्रकट होता है। मृदुता से जीव अनुद्धतभाव को प्राप्त होता है। अनुद्धतभाव (विनय) से, मृदुता से जीव आठ मदों को नष्ट कर देता है। जातिमद, कुलमद, बलमद, रूपमद, तपमद, श्रुतमद, लाभमद और ऐश्वर्यमद इन आठ मदों को न करने से उच्च गोत्र का बंध होता है। नीच गोत्र का उपार्जन
गोयमा! जाइमएणं, कुलमएणं, बलमएणं, जाव इस्सरियमएणं णीयागोयकम्मा जाव पओगबंधे। -भगवती, शतक 8, उद्देशक 9, सूत्र 87
अर्थ-जातिमद, कुलमद आदि उपर्युक्त आठ मद करने से अर्थात् मान कषाय के उदय से नीच गोत्र रूप पाप प्रकृति का बंध होता है।
यह नियम है कि प्राणी जिस वस्तु का मद या अभिमान करता है अर्थात् जिस वस्तु के आधार पर अपना मूल्यांकन करता है, उस वस्तु का मूल्य व महत्त्व बढ़ जाता है और उस स्वयं का मूल्य घट जाता है। जिसके पास वह वस्तु उससे अधिक है उसके समक्ष अपने को दीन-हीन अनुभव करता है, उससे अपने को निम्न स्तर का, निम्न श्रेणी का मानता है। वह हीनता और अभिमान की अग्नि में जलता रहता है। यह हीनता-दीनता की