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पुण्य का उपार्जन कषाय की कमी से और पाप का उपार्जन कषाय की वृद्धि से
संसारी जीव के नवम गुणस्थान तक आयुकर्म को छोड़कर शेष सात कर्मों का बंध निरंतर होता रहता है। यह बंध चार प्रकार का है-प्रकृति बंध, स्थिति बंध, अनुभाग बंध और प्रदेश बंध। प्रदेश बंध न्यून हो या अधिक हो इससे स्थिति बंध एवं अनुभाग बंध में कोई अंतर नहीं पड़ता है अर्थात् प्रदेश बंध की न्यूनाधिकता से कर्मों की स्थिति एवं फल में हानिवृद्धि नहीं होती है। सातों ही कर्मों की समस्त पुण्य-पाप प्रकृतियों का स्थिति बंध कषाय से होता है अर्थात् इनका स्थिति बंध कषाय की वृद्धि से बढ़ता है तथा कषाय की मंदता से घटता है। कषाय अधिक है या कम अशुभ है। अत: पुण्य-पाप प्रकृतियों का स्थिति बंध अधिक है या कम अशुभ ही है। इसलिये कर्म की शुभता-अशुभता अर्थात् पुण्य-पाप का संबंध कर्मों के प्रदेश व स्थिति बंध से न होकर अनुभाग या फलदान शक्ति से है। ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय एवं अंतराय इन चार घाती कर्मों में पाप और पुण्य दोनों प्रकार की प्रकृतियाँ होती हैं। इनमें पाप प्रकृतियों का उपार्जन कषाय के उदय से होता है और पुण्य प्रकृतियों का उपार्जन कषाय के क्षय (क्षीणता) से होता है।
कषाय के क्षय या कमी से आत्मा पवित्र होती है और आत्मा का