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पुण्य-पाप तत्त्व
जाती है। स्थितिबंध होने से ही प्रकृति, प्रदेश व अनुभाग भी बंध दशा को प्राप्त होते हैं। अत: चारों प्रकार के बंधनों में स्थिति बंध ही मुख्य बंध है। स्थिति बंध के अभाव में शेष तीन प्रकार के बंधनों में से कोई भी बंध संभव नहीं है। स्थिति का क्षय ही कर्म का क्षय है। अनुभाग घटने-बढ़ने से कर्मप्रदेशों का क्षय व बंध नहीं होता है। रस ( अनुभाव ) के घटने-बढ़ने पर कर्म के फल की तीव्रता-मंदता निर्भर करती है। अर्थात् कर्म की फलदान-शक्ति अर्थात् कर्म का फल उसके रस (अनुभाग) पर ही निर्भर करता है। अर्थात् पुण्य-पाप का आधार अनुभाग ही है, स्थिति नहीं, क्योंकि अनुभाग ही शुभ-अशुभ होता है, स्थिति तो समस्त पाप-पुण्य (तीनों शुभ आयु को छोड़कर) प्रकृतियों की अशुभ ही होती है। कारण कि पुण्य प्रकृतियों का स्थितिबंध पाप प्रकृतियों के समान कषाय की वृद्धि से अधिक बँधता है व कषाय की कमी से कम बँधता है । कषाय में कमी होना अच्छी बात है, परंतु कषाय में कमी होने के पश्चात् जो कम कषाय रह जाता है वह औदयिक भाव है, अत: वह कर्मों की स्थिति बंध का कारण है। स्थिति बंध से ही कर्म बँधे (टिके) रहते हैं। स्थिति के क्षय होते ही कर्मक्षय हो जाते हैं। स्थिति का क्षय कषाय के क्षय से होता है। आशय यह है कि कर्मों का क्षय कषाय के क्षय से होता है।
कषाय की मंदता क्या है ? कषाय की मंदता व वृद्धि का आधार कषाय की प्रकृति, स्थिति व प्रदेश नहीं हैं, अपितु कषाय का अनुभाव है। कषाय का द्विस्थानिक आदि अनुभावों से बढ़कर त्रिस्थानिक, चतु:स्थानिक होना कषाय की वृद्धि है, संक्लेश है। इसके विपरीत कषाय का चतु:स्थानिक अनुभाव हीन होकर त्रिस्थानिक, त्रिस्थानिक से द्विस्थानिक होना कषाय की मंदता है । कषाय की मंदता में कषाय के अनुभाव या रस अथवा फलदान शक्ति का ह्रास होता है, जिससे पाप कर्मों की स्थिति व