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पुण्य-पाप तत्त्व
की स्थिति व अनुभाग का बढ़ना उत्कर्षण है एवं स्थिति व अनुभाग का कम होना अपकर्षण है और अन्य प्रकृति रूप परिणमन या रूपान्तरण होना संक्रमण है।
-गोम्मटसार कर्मकाण्ड, 438
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संक्लेश परिणामों से पाप प्रकृतियों की स्थिति व अनुभाग का उत्कर्षण, पुण्य प्रकृतियों के अनुभाग का अपकर्षण एवं पुण्य प्रकृतियों का अपनी सजातीय पाप प्रकृतियों में संक्रमण होता है। विशुद्ध परिणामों से पुण्य प्रकृतियों के अनुभाग का उत्कर्षण, पाप प्रकृतियों की स्थिति व अनुभाग का अपकर्षण एवं पाप प्रकृतियों का अपनी सजातीय पुण्य प्रकृतियों में संक्रमण होता है अर्थात् विशुद्ध भावों से पुण्य कर्मों का उपार्जन होता है, साथ ही सत्ता में स्थित पाप-प्रकृतियों का सजातीय पुण्य - प्रकृतियों में रूपान्तरण होता है जिससे पुण्य कर्मों में अभिवृद्धि होती है।
बंधुक्कट्टणकरणं सगसगबंधोत्ति होदि नियमेण । संकमणं करणं पुण सगसगजादीण बंधोत्ति ।। अर्थात् बंधकरण और उत्कर्षण करण, ये दोनों अपनी-अपनी प्रकृतियों की बंधव्युच्छित्ति पर्यन्त होते हैं और अपनी-अपनी जाति की प्रकृतियों की जहाँ बंध व्युच्छित्ति होती है वहाँ तक इनका संक्रमण होता है। - गोम्मटसार कर्मकाण्ड, 444
ऊपर कर्मों के बंध, उदय, उदीरणा व सत्ता, उत्कर्षण, अपकर्षण, अपवर्तन एवं संक्रमण के परिप्रेक्ष्य में पुण्य-पाप का विवेचन किया गया है। उसी पर यहाँ घाती- अघाती कर्म प्रकृतियों की दृष्टि से विचार किया जा रहा है। आत्मा के विकास व ह्रास का आधार आत्मा के गुणों का विकास एवं ह्रास है। जिन कर्म - प्रकृतियों से आत्मा के गुणों का ह्रास (हानि) हो, उन्हें घातीकर्म कहा गया है और जिन कर्मप्रकृतियों से आत्मा के गुणों का