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- पुण्य-पाप तत्त्व
संवर (पापास्रव का, पाप कर्मों का निरोध), निर्जरा (संचित कर्मों का क्षय) तथा अमर (देव) सुख मिलते हैं एवं शुभानुबंधी (पुण्यानुबंधी) विपुल फल मिलते हैं।।93।।
धर्मध्यान के फल शुभास्रव, संवर, निर्जरा और अमरसुख इनमें विशेष रूप से उत्तरोत्तर वृद्धि होना प्रारंभ के दो शुक्ल ध्यानों (पृथक्त्व वितर्क सविचार और एकत्व वितर्क अविचार) का भी फल है। अंतिम दो शुक्ल ध्यान सूक्ष्मक्रिया प्रतिपाति और व्युपरतक्रिया अप्रतिपाति का फल मोक्ष की प्राप्ति है।।94।।
जो मिथ्यात्व आदि आस्रवद्वार संसार के कारण हैं वे चूंकि धर्मध्यान और शुक्ल ध्यान में संभव नहीं हैं। इसलिये यह ध्रुव नियम है कि ये ध्यान नियमत: संसार के कारण नहीं हैं, किंतु संवर और निर्जरा ये मोक्ष के मार्ग हैं। उनका पथ तप है और उस तप का प्रधान अंग ध्यान है। अत: ध्यान मोक्ष का हेतु है।।95-96।।
___ गाथा 93-94 में बताया गया है कि धर्म ध्यान में शुभास्रव (पुण्यासव) संवर (पापास्रव का निरोध), निर्जरा (कर्मों का क्षय) अमर (अविनाशी-देव) सुख एवं शुभानुबंध (पुण्यानुबंध) कहा है। टीका में शैलेशी अवस्था तथा अपवर्ग (मोक्ष) का अनुबंध कहा है। इससे यह फलित होता है कि धर्मध्यान पुण्य, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध व मोक्ष इन सब तत्त्वों व रूपों में हैं।
__ संवर, निर्जरा, बंध व मोक्ष तत्त्व का वर्णन पाप कर्मों को दृष्टि में रखकर ही किया गया है, पुण्य कर्मों को नहीं, क्योंकि पुण्य कर्मों का आस्रव व अनुबंध आत्म विशुद्धि में होता है।