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तत्त्वज्ञान और पुण्य-पाप
जो कार्य धर्म-ध्यान में होते हैं, वे ही कार्य विशुद्धि भाव रूप चढ़ते विचार से पुण्य तत्त्व से भी होते हैं, उदाहरणार्थ पुण्य से अनादेय, अयश कीर्ति, नीच गोत्र आदि पाप कर्म प्रकृतियों का निरोध संवर होता है, आदेय आदि पुण्य कर्म प्रकृतियों का आस्रव होता है, स्थिति बंध का अपवर्तन होने से पाप कर्मों का क्षय - निर्जरा होती है। पुण्य कर्म प्रकृति का अनुभाग बंध होता है व पाप कर्मों का पुण्य कर्मों में संक्रमण होता है, जिससे पुण्य कर्मों में वृद्धि होती है।
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पुण्य तत्त्व के फल से पुण्य कर्म प्रकृतियों के स्थिति बंध का क्षय होता है और अनुभाग बंध में वृद्धि होती है। इस प्रकार पुण्य कर्म का क्षय व बंध दोनों होते हैं। इन सबका कथन युगपत् अवक्तव्य है। क्रम से यथा प्रसंग ही संभव है। प्रत्येक स्थल पर कैसे संभव है?
धवला टीका पुस्तक 13 गाथा 26 पृष्ठ 68 में धर्मध्यान की चार भावनाएँ हैं-1. ज्ञानभावना 2. दर्शनभावना 3. चारित्रभावना और 4. वैराग्यभावना। इनमें से चारित्रभावना के स्वरूप व गुण के विषय में कहा गया है
नव कम्माणायाणं पोराणविणिज्जरं सुभायाणं । चारित्तभावणाए झाणमयत्तेण य समेइ ।।
-ध्यानशतक गाथा 33, धवला पुस्तक 13, गाथा 26
अर्थ-चारित्रभावना से नवीन कर्मों के ग्रहण का अभाव, पूर्व संचित कर्मों की निर्जरा, शुभ (पुण्य) कर्मों का ग्रहण (आदान) और ध्यान, ये बिना किसी प्रयत्न के (स्वत:) होते हैं।
पापाचरण (सावद्ययोग) की निवृत्ति को चारित्र कहा है। इसके ग्रहण का नाम चारित्र भावना है। इस भावना से वर्तमान में आते हुए