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तत्त्वज्ञान और पुण्य-पाप ----
-------------- 77 चतु:स्थानिक नहीं हो जाता तब तक सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान नहीं हो सकता और फिर यही चतु:स्थानिक अनुभाग बढ़कर उत्कृष्ट हो जाता है तब ही केवलज्ञान होता है। पुण्य प्रकृतियों के अनुभाग के अनुत्कृष्ट रहते क्षायिक चारित्र व केवलज्ञान नहीं होता है। अभिप्राय यह है कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यक् चारित्र रूप मोक्ष मार्ग में पुण्य कहीं भी बाधक नहीं है, अपितु सहायक है।
अत: पुण्य कर्म के संवर, निर्जरा व क्षय करने की मुक्ति-प्राप्ति में किंचित् भी अपेक्षा नहीं है। इसीलिए पुण्य कर्म को आस्रव, संवर, निर्जरा व मोक्ष तत्त्व के किसी भी भेद-प्रभेद में स्थान नहीं दिया गया है। जीव के लिए पाप तत्त्व, पापास्रव, पाप प्रवृत्ति, पाप कर्म का बंध ही अहितकर है। अत: साधना में पाप के संवर, निर्जरा व क्षय को ही स्थान दिया गया है।
उपर्युक्त तथ्य महर्षि श्री जिनभद्रगणी विरचित एवं श्री हरिभद्रसूरि द्वारा टीका कृत 'ध्यान शतक' ग्रन्थ में वर्णित धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान के फल से भी स्पष्ट प्रकट होता है यथा
होंति सुहासव-संवर विणिज्जराऽमर सुहाइं विउलाइं। झाणवरस्स फलाइं सुहाणुबंधीणि धम्मस्स।।93।।
-धवला पुस्तक 13, गाथा 56 ते य विसेसेण सुभासवादओऽणुत्तरामरसुहं च। दोण्हं सुक्काण फलं परिनिव्वाणं परिल्लाणं।।4।। आसवदारा संसारहेयवो जं ण धम्म-सुक्केसु। संसारकारणाइ तओ धुवं धम्मसुक्काइं।।95।। संवर-विणिज्जराओ मोक्खस्स पहो तवो तासिं।
झाणं च पहाणगं तवस्स तो मोक्खहेउयं ।।96।। अर्थात्-उत्तम धर्मध्यान से शुभास्रव (पुण्य कर्मों का आगमन),