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तत्त्वज्ञान और पुण्य-पाप
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तथा पुण्य कर्मों का नया बंध नहीं होना । " गाथाकार को इष्ट होता तो कर्म शब्द के पहले पाप विशेषण लगाने की आवश्यकता ही नहीं होती ।
ऊपर निर्जरा तत्त्व में तप के 12 भेद कहे गये हैं। इनसे पाप कर्मों की ही निर्जरा होती है, पुण्य कर्मों की निर्जरा नहीं होती है, अपितु पुण्य कर्मों का प्रदेश व अनुभाग बढ़ता है। यदि निर्जरा तत्त्व पुण्य कर्मों की निर्जरा भी इष्ट होती तो पुण्य कर्मों की निर्जरा पाप प्रवृत्तियों से होती है, अतः पुण्य कर्मों की निर्जरा के हेतु प्राणातिपात आदि 18 पापों को निर्जरा तत्त्व में स्थान दिया जाता। लेकिन ऐसा नहीं किया गया। इससे स्पष्ट प्रमाणित होता है कि निर्जरा तत्त्व में पुण्य कर्मों की निर्जरा को स्थान नहीं दिया गया है।
बंध तत्त्व
बंध चार प्रकार का है। इनमें से प्रकृति और प्रदेश बंध योग से तथा स्थिति और अनुभाग बंध कषाय से होता है। जैसा कि कहा है-जोगा पयडिपएसं ठिइअणुभागं कसायाउ - पंचम कर्मग्रन्थ 96, गोम्म.कर्मकाण्ड गाथा 257,
इन चार प्रकार के बंधनों का विवेचन पहले कर आए हैं। इनमें महत्त्व अनुभाग का है, कारण कि कर्म का फल उसके अनुभाग से मिलता है, स्थिति बंध और प्रदेश बंध से नहीं। प्रदेश बंध किसी भी कर्म का कितना ही न्यूनाधिक हो उसका अनुभाग पर कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ता है। यहाँ 'अणुभागं कसायाउ' सूत्र कहा गया है। यह सूत्र भी पाप कर्मों पर ही लागू होता है पुण्य कर्मों पर नहीं । कारण कि कषाय से पाप कर्मों के अनुभाग में वृद्धि होती है और पुण्य कर्मों के अनुभाग में कषाय से वृद्धि नहीं होती अपितु क्षति होती है। पुण्य कर्मों के अनुभाग में वृद्धि कषाय से नहीं होकर कषाय की कमी से होती है।