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--- पुण्य-पाप तत्त्व
ज्ञानावरणादि पाप कर्मों का निरोध और पूर्वोपार्जित इन्हीं पाप कर्मों की निर्जरा होती है तथा पुण्य कर्म प्रकृतियों का ग्रहण व ध्यान की उपलब्धि, ये सब अनायास (स्वत:) होते हैं।
यहाँ चारित्र भावना से नवीन कर्मों का अनादान पाप कर्मों का ही कहा गया है। शुभ (पुण्य) कर्मों का नहीं कहा है, बल्कि यहाँ पुण्य कर्मों का आदान ग्रहण होना कहा है।
विवेचन-ध्यान के अतिप्राचीन एवं प्रामाणिक ध्यानशतक ग्रन्थ के रचनाकार जैन जगत् के विख्यात महर्षि श्री जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण एवं वृत्तिकार श्री हरिभद्रसूरि हैं। जैन धर्म की दोनों सम्प्रदायों में इस ग्रंथ का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इस ग्रंथ की उपर्युक्त गाथाओं से निम्नांकित तथ्य प्रकट होते हैं।
___ गाथा 93-94 में श्रेष्ठध्यान-धर्मध्यान का प्रतिपादन करते हुए कहा है कि धर्मध्यान से 1. आस्रव 2. संवर 3. निर्जरा 4. बंध और 5. देवसुख होता है और गाथा 96 में इसे मोक्ष का हेतु भी कहा है। पृथक्त्व विर्तक सविचार शुक्ल ध्यान जो उपशम कषाय वाले साधु के होता है तथा एकत्व वितर्क अविचार शुक्ल ध्यान जो क्षपक कषाय वाले साधु के होता है। इन दोनों शुक्लध्यानों का फल भी धर्मध्यान से होने वाले आस्रव, संवर, निर्जरा व मोक्ष का होना कहा है।
यहाँ यह जिज्ञासा होती है कि आस्रव और संवर दोनों परस्पर में विरोधी हैं तथा निर्जरा और बंध ये दोनों भी परस्पर विरोधी हैं। इन विरोधियों का धर्मध्यान व शुक्लध्यान में एक साथ होना कहा गया है, यह कैसे संभव है?