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---- पुण्य-पाप तत्त्व
कषाय का सम्पूर्ण क्षय क्षपक श्रेणी में होता है। अत: वहाँ विद्यमान पुण्य प्रकृतियों का अनुभाग बढ़कर उत्कृष्ट हो जाता है। यह उत्कृष्ट अनुभाग मुक्ति-प्राप्ति के समय तक ज्यों का त्यों विद्यमान रहता है, केवलिसमुद्घात की साधना से भी इसका क्षय नहीं होता है। इस कारण कि पुण्य प्रकृतियों के अनुभाग का क्षय संक्लेश भाव से ही होता है और किसी भी हेतु से नहीं होता है जो केवली के यथाख्यात चारित्र में संभव नहीं है। समस्त साधनाओं से पुण्य का अनुभाग बढ़ता ही है, घटता नहीं। मोक्ष-तत्त्व सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः।
-तत्त्वार्थसूत्र, अध्ययन 1, सूत्र 1 नाणं च दंसणं चेव, चरित्तं च तवो तहा। एस मग्गुत्ति पण्णत्तो, जिणेहिं वरदंसीहिं।।
-उत्तराध्ययन सूत्र, अध्ययन 28, गाथा 2 अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र इन तीनों के मिलने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। इनमें जो बाधक हैं वे ही मोक्ष की प्राप्ति में बाधक हैं। सम्यग्दर्शन की प्राप्ति में मिथ्यात्व बाधक है और सम्यक् चारित्र की प्राप्ति में अनंतानुबंधी, अप्रत्याख्यान आदि कषाय बाधक हैं, ये सब बाधक कारण मोहनीय कर्म की प्रकृतियाँ है, पुण्य प्रकृतियाँ व शुभ योग नहीं। अपितु मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति आदि पुण्य प्रकृतियों के उदय के अभाव में मोक्षमार्ग की साधना ही संभव नहीं है। सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र से आत्मा पवित्र होती है, जिससे शुभयोग में एवं पुण्य प्रकृतियों के अनुभाग में वृद्धि होती है। अत: साधक मोक्षमार्ग में जितना बढ़ता जाता है उतनी ही उसके पुण्य के अनुभाग में वृद्धि होती जाती है। प्रथम तो जब तक पुण्य प्रकृतियों का अनुभाग बढ़कर