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--- पुण्य-पाप तत्त्व
योग है, पाप है। इन्हीं पुण्य-पाप परिणामों से व प्रवृत्तियों से पुण्य-पाप का आस्रव होता है। पुण्य परिणाम जीव के लिए कल्याणकारी हैं, जैसा कि ज्ञाताधर्मकथा सूत्र के प्रथम अध्ययन में भगवान महावीर ने मेघकुमार को प्रतिबोध देते हुए फरमाया है-तुम मेहा! ताए पाणाणुकंपयाए भूयाणुकंपयाए जीवाणुकंपयाए सत्ताणुकंपयाए संसारे परित्तीकए माणुस्साऊ निबद्धे ।
अर्थ- "हे मेघ! तुमने उस प्राणानुकंपा, भूतानुकंपा, जीवानुकंपा तथा सत्त्वानुकंपा से संसार परीत किया और मनुष्यायु का बंध किया।" इसमें अनुकंपा को सर्व कर्मों का क्षय कर संसार सीमित करने का तथा मनुष्यायु रूप पुण्य कर्मबंध का हेतु बताया है। इसी ज्ञाताधर्मकथा में आगे अध्ययन 8 में तीर्थङ्कर नामगोत्र कर्म के 20 हेतु बताये हैं, यथा
अरहंत सिद्ध पवयण गुरु, थेर बहुस्सुए तवस्सीसुं। वच्छल्लया य तेसिं अभिक्खनाणोवओगे य। दसण-विणय-आवस्सए, सीलव्वए निरइयारो, खणलवतवचियाए वेयावच्चे समाही य।।2।। अपुव्वनाणगहणे सुयभत्ती पवयणे पभावणया। एएहिं कारणेहिं तित्थयरत्तं लहइ सो उ।।3।।
अर्थ-1. अरिहंत, 2. सिद्ध, 3. प्रवचन, 4. गुरु, 5. स्थविर, 6. बहुश्रुत, 7. तपस्वी के प्रति वत्सलता, 8. अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग, 9. दर्शन, 10. विनय, 11. छ: आवश्यक, 12. निरतिचार शील पालन, 13. क्षणलव, 14. तप, 15. त्याग, 16. वैयावृत्त्य, 17. समाधि, 18. अपूर्वज्ञान ग्रहण, 19. सुश्रुत भक्ति, 20. प्रवचन प्रभावना। इन बीस बोलों से तीर्थङ्कर नाम कर्म का उपार्जन होता है। इसमें निरतिचार व्रत पालन, तप, संयम आदि के त्याग रूप निवृत्ति धर्म को तथा वात्सल्य, वैयावृत्त्य, ज्ञान ग्रहण रूप सद्प्रवृत्ति को पुण्य उपार्जन का कारण कहा गया है।