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तत्त्वज्ञान और पुण्य-पाप
नम्रता,
है जो सातावेदनीय के बंध का हेतु है। मान कषाय की कमी से मृदुता - निरभिमाना प्रकट होता है जो उच्च गोत्र के बंध का हेतु है । माया कषाय की कमी से सरलता का गुण प्रकट होता है जो नाम कर्म की शुभ प्रकृतियों के बंध का हेतु तथा लोभ कषाय की कमी से निर्लोभता का गुण प्रकट होता है जो शुभ आयु के बंध का हेतु है। इस प्रकार कषाय की, पाप की कमी से समस्त पुण्य प्रकृतियों का आस्रव नियम से होता है। कोई साधक कषाय की कमी व क्षय करे और उसके पुण्य प्रकृतियों का अनुबंध न हो यह कदापि संभव नहीं है। इन चारों ही कर्मों की सातावेदनीय, मनुष्यायु, उच्च गोत्र, मनुष्यगति, यशकीर्ति आदि 12 पुण्य प्रकृतियों का उदय चौदहवें गुणस्थान में मुक्ति-प्राप्ति के अंतिम समय तक रहता है। पुण्य प्रकृतियों के अनुभाग का क्षय कषाय के उदय से ही होता है। अतः इनके अनुभाव का क्षय किसी भी साधना से संभव नहीं है। सभी साधनाओं से इनका अनुभाग बढ़ता ही है, घटता नहीं है । इसीलिए पुण्य के उपार्जन को आस्रव तत्त्व के किसी भी भेद में नहीं लिया गया है यथा
इंदिय कसाय - अव्वय - जोगा पंच चउ पंच तिन्निकम्मा । किरियाओ पणवीसं इमाउ ताओ अनुक्कमसो।।
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अर्थात् पाँच इन्द्रियाँ, चार कषाय, पाँच अव्रत, तीन योग और पच्चीस क्रियाएँ, ये आस्रव के 42 भेद हैं। तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय 6 के सूत्र में आस्रव के भेद इस प्रकार हैं
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इन्द्रियकषायाव्रतक्रिया: पंचचतुः पंचपंचविंशतिसंख्या: पूर्वस्य भेदा: ।
अर्थात् अव्रत 5, कषाय 4, इन्द्रियाँ 5, क्रियाएँ 25, ये 39 सांपरायिक आस्रव के भेद हैं। इन भेदों में तीन योगों के मिलाने से 42 भेद हो जाते हैं। इन 42 आस्रव के भेदों में कर्म उपार्जन के हेतुओं में केवल