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-- पुण्य-पाप तत्त्व निषेध कहीं भी नहीं किया गया है। उत्तराध्ययन के बत्तीसवें 'प्रमाद स्थान' अध्ययन में एक सौ ग्यारह गाथाओं में विषय, कषाय, राग, द्वेष, मोह, तृष्णा आदि पापों के त्याग को ही सब दु:खों से मुक्ति पाने का उपाय बताया है। कहीं पर भी पुण्य को त्याज्य नहीं कहा है।
एए दहप्पयारा पावकम्मस्स णासया भणिया। पुण्णस्स य संजणया, पर पुणत्थं ण कायव्वा।।
-कार्तियकेयानुप्रेक्षा, 40 धर्म के दस भेद पाप कर्म का नाश करने वाले तथा पुण्य कर्म का उपार्जन करने वाले कहे हैं, परंतु इन्हें पुण्य के लिए नहीं करना चाहिए। इससे स्पष्ट है क्षमा, सरलता आदि धर्मों से पाप कर्मों का ही क्षय होता है, पुण्य कर्मों का क्षय नहीं होता है। अपितु इनसे तो पुण्य कर्मों का उपार्जन होता है।
विशुद्धि-संक्लेशांगं चेत् स्व-परस्थं सुखासुखम्। पुण्यपापास्रवो युक्तो न चेद् व्यर्थस्तवार्हतः।।
-देवागम कारिका, 95 आचार्य श्री समंतभद्र के मत में सुख-दु:ख अपने को हो या दूसरे को हो, वह यदि विशुद्धि का अंग हो तो पुण्यास्रव का और संक्लेश का अंग हो तो पापास्रव का हेतु है। यदि वह दोनों में से किसी का भी अंग नहीं है तो वह व्यर्थ है, निष्फल है।
सम्मत्तेण सुदेण य विरदीए कसायणिग्गहगुणेहिं। जो परिणदो सो पुण्णो........।।
-मूलाचार 234 सम्यक्त्व, श्रुतज्ञान, विरति, कषायनिग्रह रूप गुणों से परिणत आत्मा पुण्य स्वरूप है। जैनागम में सम्यक्त्व, विरति, कषाय निग्रह आदि