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---- पुण्य-पाप तत्त्व गरिहणयाए णं अपुरक्कारं जणयइ! अपुरक्कारगए णं जीवे अप्पसत्थेहिंतो जोगेहिंतो नियत्तेइ, पसत्थे य पडिवज्जइ। पसत्थजोगपडिवन्ने य णं अणगारे अणंतघाइ-पज्जवे खवेइ। -उत्तराध्ययन सूत्र, अध्ययन 29, सूत्र 7
साधक गर्हणा से अपुरस्कार आत्म-नम्रता पाता है तथा आत्मनम्रता से अप्रशस्त योगों से निवृत्त होकर प्रशस्त योगों को प्राप्त करता है। प्रशस्त योगों को प्राप्त अनगार ज्ञानावरणादि घाती कर्मों का क्षय करता है।
उत्तराध्ययन सूत्र के 29वें अध्ययन में तिहत्तर बोलों की पृच्छा की गई है। इनमें से साधना की प्रत्येक क्रिया से पुराने पाप कर्मों का क्षय, नवीन पाप कर्मों के बंध का निरोध एवं पुण्य कर्मों का उपार्जन होना कहा गया है। यहाँ इस सातवें बोल में भी कहा गया है कि गर्दा से अप्रशस्त योगों से निवृत्त होता है और प्रशस्त योगों में प्रवृत्त होता है तथा प्रशस्त अर्थात् शुभ योगों से घाती कर्मों का क्षय होता है। घाती कर्मों का क्षय होने से पूर्व निर्दोषता आती है जिससे केवल ज्ञान, केवल दर्शन, क्षायिक चारित्र आदि समस्त आत्मिक गुणों की उलपब्धि होती है और साधक मुक्ति को प्राप्त करता है।
उत्तराध्ययन सूत्र के उपर्युक्त भगवद् वचन से स्पष्ट है कि शुभ योग से अघाती पाप कर्म ही नहीं घाती कर्म भी क्षय होते हैं एवं मुक्ति की प्राप्ति होती है।
पाणिवह-मुसावाया, अदत्त-मेहुण परिग्गहा विरओ। राइभोयण विरओ, जीवो हवइ अणासवो।।
-उत्तराध्ययन सूत्र, अध्ययन 30, गाथा 2
प्राणिवध, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह एवं रात्रि-भोजन से विरत जीव अनास्रव (आस्रव रहित) होता है। इस गाथा में अनास्रव होने