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--- पुण्य-पाप तत्त्व
संवर के मुख्य पाँच भेद हैं-जो आस्रव निरोध के हैं। यथा1. सम्यक्त्व संवर-यह मिथ्यात्व पाप के आस्रव का निरोध करता है।
2. विरति संवर-यह अविरतिभाव-प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन और परिग्रह इन पापों के आस्रव का निरोध करता है।
3. अप्रमाद संवर-यह प्रमाद से होने वाले पाप कर्मों का निरोध करता है।
4. अकषाय संवर-यह क्रोध, मान, माया, लोभ, रति, अरति, राग, द्वेष इन पापों के आस्रव का निरोध करता है।
5. शुभयोग संवर-यह अशुभ योग, परपरिवाद, कलह, अभ्याख्यान आदि दुष्प्रवृत्तियों के पापास्रव का निरोध करता है।
___ संवर के 57 भेदों में शुभ योग में वृद्धि होती है जो पुण्य के आस्रव की हेतु है। इन सबसे पुण्य कर्म के अनुभाग में वृद्धि होती है और इनका अनुभाग कभी भी चतु:स्थानिक से घटता नहीं है। अत: पुण्य कर्म के निरोध की दृष्टि से इन्हें संवर नहीं कहा है, अपितु पुण्य प्रकृतियों का आस्रव होने से इनकी विरोधिनी व अन्य पाप कर्म की प्रकृतियों के आस्रव का निरोध होता है, वही संवर है। अत: पाप के आस्रव के निरोध को ही संवर तत्त्व में स्थान दिया गया है। पुण्य के आस्रव के निरोध को संवर नहीं कहा गया है। अत: पाप का आस्रव ही त्याज्य है। पाप के आस्रव के त्याग से पुण्य का आस्रव स्वतः होता है।
इस प्रकार संवर के समस्त भेद-प्रभेद पापास्रव के ही निरोधक हैं। किसी भी भेद से पुण्य के आस्रव का निरोध नहीं होता है।