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----- पुण्य-पाप तत्त्व
पापास्रव का ही ग्रहण किया गया है। व्रत, प्रत्याख्यान, त्याग-तप से तथा दया, दान, अनुकंपा आदि शुभ योगों से होने वाले पुण्यास्रव के हेतुओं को नहीं लिया गया है। इसका कारण यह है कि जैन धर्म में साधक के लिए पाप के आस्रव के त्याग का ही उपदेश है, पुण्यास्रव के त्याग का उपदेश नहीं है। यदि पुण्यास्रव को आस्रव तत्त्व में गिना जाता तो साधक के लिए इसका निरोध व त्याग आवश्यक होता। साधना काल में अर्थात् दसवें गुणस्थान तक जब भी पुण्य प्रकृतियों के आस्रव का निरोध होता है तो उनकी विरोधिनी पाप प्रकृतियों का आस्रव अवश्य होता है। जैसे सातावेदनीय, उच्च गोत्र, यशकीर्ति नाम, आदेय नाम आदि पुण्य प्रकृतियों के आस्रव का निरोध होने पर असातावेदनीय, नीच गोत्र, अयशकीर्ति नाम, अनादेय नाम आदि पाप प्रकृतियों का आस्रव व बंध अवश्य होता है। अत: पुण्य प्रकृतियों के आस्रव के निरोध का अर्थ है पाप प्रकृतियों के आस्रव व बंध को आमंत्रण देना, आह्वान करना। जो जीव के लिए अहितकर है अर्थात् पुण्य के आस्रव का निरोध पाप के आस्रव का हेतु है। पुण्य का आस्रव शुभ योग से होता है। अत: पुण्य के आस्रव का निरोध तभी संभव है, जब शुभ योग हो। कारण कि संसार के समस्त जीवों के शुभ और अशुभ इन दोनों योगों में से एक योग अवश्य ही रहता है। अत: शुभ योग के अभाव में अशुभ योग अवश्य होता है जो पापास्रव का हेतु है। अत: जहाँ योग को आस्रव का हेतु कहा है वहाँ अशुभ योग ही ग्राह्य है, पुण्यास्रव नहीं। तात्पर्य यह है कि आस्रव तत्त्व के भेदों में पाप व पाप कर्मों के बंध के हेतु मिथ्यात्व, अव्रत, कषाय व अशुभ योग को ही ग्रहण किया गया है। पुण्य तत्त्व व पुण्य कर्म प्रकृतियों के आस्रव व बंध के हेतु सम्यग्दर्शन, व्रत, प्रत्याख्यान, संयम, त्याग, तप, धर्मध्यान, शुक्लध्यान, शुभ योग आदि को ग्रहण नहीं किया गया है। अपितु इन्हें आस्रव निरोध का कारण बताया है, यथा