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तत्त्वज्ञान और पुण्य-पाप ----
---------- 67 शुभ योग को संवर क्यों कहा?
तत्त्वार्थ सूत्र अध्ययन 6 सूत्र 3 में शुभः पुण्यस्य' कहा है अर्थात् शुभ योग से पुण्य का आस्रव होता है। यहाँ प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि शुभयोग आस्रव का हेतु है, अत: उसे संवर क्यों कहा जाए? उत्तर में कहना है कि-जैनागम में आस्रव-संवर तत्त्वों का विवेचन मोक्ष-प्राप्ति की साधना की दृष्टि से किया गया है। मोक्ष-प्राप्ति में पाप ही बाधक है, पुण्य नहीं। अत: आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध, मोक्ष आदि तत्त्वों का विवेचन पाप को ही लक्ष्य में रखकर किया गया है। कारण कि प्राणी पाप से, कषाय से ही कर्मों का बंध करता है, संसार को बढ़ाता है व संसार में परिभ्रमण करता है। अत: पाप ही हेय व त्याज्य है, पाप के क्षय से ही वीतरागता व मुक्ति की उपलब्धि संभव है।
पाप का अवरोध व निरोध होने पर पुण्य स्वतः होता है। प्राणी पाप में जितनी कमी करता है, उतनी ही पुण्य में वृद्धि होती है। अशुभ योग पाप है, जिससे पाप का आस्रव व बंध होता है। अशुभ योग में कमी होने से शुभ योग होता है। जिससे शुभ योग जन्य पापकर्मों के आस्रव का निरोध होता है, नवीन पापकर्मों का बंध रुकता है तथा पूर्व में बँधे हुए पाप कर्मों का क्षय होता है। जैसे सातावेदनीय के आस्रव से असातावेदनीय पाप कर्म का, उच्च गोत्र से नीच गोत्र पाप कर्म का, शुभ नाम कर्म से अशुभ नाम कर्म की पाप प्रकृतियों के आस्रव का निरोध नियम से होता है तथा पूर्व में बँधी हुई इनकी पाप प्रकृतियों के स्थिति व अनुभाग का घात भी होता है। इस प्रकार पुण्य के आस्रव से पाप कर्मों के आस्रव का निरोध तथा पूर्व में बँधे पाप कर्मों का क्षय होता है। जिससे आत्मा मुक्ति के पथ पर आगे बढ़ती है। इस प्रकार पाप के आस्रव के निरोध का हेतु होने से शुभ योग को संवर कहा है। शुभ योग से पाप कर्मों के आस्रव का निरोध तो होता ही है, साथ ही घाती कर्मों का क्षय भी होता है। यथा