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तत्त्वज्ञान और पुण्य-पाप ----
----- 71 गुणों को जीव का स्वभाव व संवर कहा है। अत: जहाँ संवर है वहाँ पुण्य है। अत: संवर पाप के निरोध व क्षय का ही हेतु है, पुण्य के निरोध या क्षय का नहीं।
शुभ योग मोक्ष रूप फल को प्रदान करने वाला है। जैसा कि कहा हैप्रतिवर्तनं वा शुभेषु योगेषु मोक्षफलदेषु। नि:शल्यस्य यतेर्यत् तद्वा ज्ञेयं प्रतिक मणम्।।
-आवश्यक सूत्र प्रतिक्रमण का स्वरूप बतलाते हुए इस श्लोक में कहा गया है कि शल्य रहित मुनि का मोक्षफल को प्रदान करने वाले शुभ योगों में उत्तरोत्तर वर्तन करना प्रतिक्रमण है। यहाँ भी शुभयोग को मोक्ष रूपी फल प्रदान करने वाला कहा गया है।
निर्जरा तत्त्व निर्जरा पाप की ही इष्ट है
कर्मों के क्षय होने को निर्जरा कहते हैं। निर्जरा के दो प्रकार हैंअकाम निर्जरा और सकाम निर्जरा। अकाम निर्जरा-काल प्राप्त होने पर कर्मों का स्वत: उदय में आकर निर्जरित होना। सकाम निर्जरा-तप से कर्मों का निर्जरित (क्षय) होना। निर्जरा तत्त्व में सकाम निर्जरा को लिया गया है। सकाम निर्जरा तप से होती है। तप के अनशन आदि बारह भेद हैं। तप से आत्मा पवित्र होती है, जिससे पुण्य कर्मों का उपार्जन होता है और उनके अनुभाग में वृद्धि होती है। पाप कर्मों का विशेषत: घाती कर्मों के अनुभाग व स्थिति का क्षय होता है। जिससे आत्म-गुण प्रकट होते हैं। अत: निर्जरा तत्त्व में पाप कर्मों की निर्जरा ही इष्ट है, पुण्य कर्मों की निर्जरा नहीं। कारण कि तप से पुण्य कर्मों की 32 प्रकृतियों का अनुभाग बढ़कर उत्कृष्ट