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-- पुण्य-पाप तत्त्व हो जाता है, फिर यह अनुभाग चौदहवें अयोगी केवली गुणस्थान में अंतिम समय तक उत्कृष्ट ही रहता है। किसी भी साधना से क्षीण नहीं होता है अर्थात् उसकी निर्जरा नहीं होती है।
तवसा निज्जरिज्जइ (उत्तरा. 30/6)
तपसा निर्जरा च (तत्त्वार्थ 9/3) अर्थात् तप से निर्जरा होती है। तप के 12 भेद हैं-1. अनशन 2. ऊनोदरी 3. भिक्षाचर्या 4. रसपरित्याग 5. कायक्लेश 6. प्रतिसंलीनता 7. प्रायश्चित्त 8. विनय 9. वैयावृत्त्य 10. स्वाध्याय 11. ध्यान 12. व्युत्सर्ग। (भगवती शतक 25 उद्देशक 7, उत्तराध्ययन 30 गाथा 8 व 30, तत्त्वार्थ सूत्र 9/19-20)
तप के बारह भेदों में से किसी से भी पुण्य कर्म का क्षय नहीं होता है, प्रत्युत पुण्य का उपार्जन ही होता है। तप के बारह भेदों में स्वाध्याय, ध्यान, कायोत्सर्ग आदि तपों का विशेष महत्त्व है। इन सबसे पाप कर्मों का क्षय होता है, परंतु पुण्य कर्मों का क्षय न होकर उपार्जन होता है यथाउत्तराध्ययन सूत्र, अध्ययन 29
पृच्छा 18-स्वाध्याय से ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय होता है। पृच्छा 20-प्रतिपृच्छना से कांक्षा मोहनीय कर्म का नाश होता है।
पच्छा 22-साधक अनप्रेक्षा से सात कर्मों की पाप प्रकतियों के गाढ बन्धनों को शिथिल बंध, दीर्घ स्थिति बंध को अल्प स्थिति बंध, तीव्र अनुभाग को मंद अनुभाग, बहुप्रदेशी को अल्पप्रदेशी करता है।
पृच्छा 43-वैयावृत्त्य से तीर्थङ्कर नाम गोत्रकर्म का बंध करता है।
पृच्छा 12-कायोत्सर्ग से आत्म-विशुद्धि व शुभ ध्यान करता हुआ सुख से विचरता है।