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पुण्य-पाप तत्त्व
है। आस्रव का अर्थ है-आगमन अर्थात् विद्यमान में वृद्धि होना । अत: जिससे शुभ (पुण्य) कर्मों के अनुभाग में वृद्धि हो वह पुण्यास्रव है, शुभ योग है और जिससे अशुभ (पाप) कर्मों के अनुभाग में वृद्धि हो वह पापास्रव है, अशुभ योग है। इसी तथ्य का समर्थन प्रज्ञाचक्षु पं. श्री सुखलालजी संघवी ने तत्त्वार्थ सूत्र अध्ययन 6, सूत्र 4 की टीका में किया है।
ऊपर गाथा में पुण्य कर्म के आस्रव का हेतु शुद्धोपयोग को कहा है। इसका कारण यह है कि पुण्य का आस्रव व उपार्जन कषाय की कमी से होता है और कषाय की कमी होना शुद्धता के अभिमुख होना, शुद्धोपयोग है (समयसार तात्पर्यवृत्ति गाथा 320 ) ।
पुण्यास्रव-वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र इन चारों अघाती कर्मों में ही पुण्य प्रकृतियाँ होती हैं। इन चारों कर्मों की पुण्य प्रकृतियों का उपार्जन अर्थात् पुण्य का आस्रव चारों कषायों की कमी से होता है। यथा
वेदनीय कर्म-वेदनीय कर्म की दो प्रकृतियाँ हैं- साता वेदनीय और असातावेदनीय। सातावेदनीय पुण्य प्रकृति है और असाता वेदनीय पाप प्रकृति है। इनके बंध के हेतु हैं
दुःख-शोक-तापा - क्रन्दन-वध-परिवेदनान्यात्म-परोभय-स्थान्यसद्वेद्यस्य। ‘भूत व्रत्यनुकंपादानं सरागसंयमादि योग:, क्षान्तिः शौचमिति सद्वेद्यस्य।। -तत्त्वार्थ सूत्र अध्ययन 6/12-13 अर्थात् दु:ख देना, शोक पैदा करना, ताप देना, आक्रंदन करना, वध करना और परिवेदन, ये असातावेदनीय के हेतु हैं। ये सब अनुकंपा एवं क्षमाशीलता के अभाव के सूचक क्रोध कषाय के रूप हैं। इसके विपरीत भूत - व्रती - अनुकंपा, दान, सरागसंयमादि योग, क्षान्ति और शौच, ये सातावेदनीय कर्म के बंध के हेतु हैं।