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तत्त्वज्ञान और पुण्य-पाप ------
------ 57 'पातयति आत्मानम् इति पापम्' अर्थात् जिससे आत्मा पवित्र हो, शुद्ध हो वह पुण्य है और जिससे आत्मा का पतन हो, आत्मा अपवित्र हो, अशुद्ध हो वह पाप है (अभिधान राजेन्द्र कोष, खण्ड 5, पृष्ठ 76) आत्मा पवित्र व शुद्ध शुभ योग से, सद्प्रवृत्ति से होती है और अपवित्र व अशुद्ध अशुभ योग से, दुष्प्रवृत्ति से होती है। शुभ योग और अशुभ योग का हेतु विशुद्धि
और संक्लेश परिणाम है। क्रोध, मान, माया और लोभ इन कषायों में वृद्धि होना संक्लेश परिणाम है और जीव के परिणामों में समुत्पन्न अर्थात् विद्यमान कषायों में हानि होना विशुद्धि परिणाम है, जैसा कि कहा है
____को संकिले सो णाम? कोह-मान-माया-लोह परिणामविसे सो। को विसोहिणाम? जेसु जीवपरिणामेसु समुपण्णेसु हानि होदि।
-जयधवला टीका पुस्तक 4, पृष्ठ 15 व 41 विशुद्ध परिणाम से योगों में शुभता बढ़ती है और संक्लेश परिणाम से योगों में अशुभता बढ़ती है। विशुद्ध परिणामों एवं तज्जन्य शुभ योगोंसद्प्रवृत्तियों से आत्मा पवित्र होती है। परिणामों की यह विशुद्धता अर्थात् चढ़ते परिणाम; भाव पुण्य तत्त्व है और सद्प्रवृत्तियाँ द्रव्य पुण्य तत्त्व हैं। इसके विपरीत संक्लेश परिणामों एवं तज्जन्य अशुभ योगों-दुष्प्रवृत्तियों से आत्मा का पतन होता है, आत्मा अपवित्र होती है। परिणामों की संक्लिष्टता अर्थात् गिरते परिणाम, भाव पाप तत्त्व हैं और दुष्प्रवृत्तियाँ द्रव्य पाप तत्त्व हैं। पुण्य और पाप तत्त्वों का आधार जीव के परिणामों की शुद्धता-अशुद्धता पर निर्भर है। उदाहरणार्थ-डॉक्टर व डाकू दोनों छुरे से पेट चीरने की प्रवृत्ति करते हैं परंतु इस प्रवृत्ति में डॉक्टर का परिणाम रोगी के प्राणों की रक्षा करना है और डाकू का परिणाम व्यक्ति के प्राण हनन करना है। अत: डॉक्टर का परिणाम अनुकंपा युक्त होने से उसकी प्रवृत्ति शुभयोग है, पुण्य है और डाकू के परिणाम अशुद्ध, क्रूर होने से उसकी प्रवृत्ति अशुभ