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तत्त्वज्ञान और पुण्य-पाप
पूर्व के प्रकरण में कर्म-सिद्धांत के परिप्रेक्ष्य में पुण्य-पाप कर्मों का संक्षेप में विवेचन किया जा रहा है। कर्मसिद्धांत और तत्त्वज्ञान में अंतर यह है कि कर्मसिद्धांत में विश्व के स्वरूप का एवं संसारी जीव की कर्म जन्य विविध अवस्थाओं का वर्णन है। इसमें हेय-उपादेय का विवेचन नहीं है। तत्त्वज्ञान का वर्णन आत्म-विकास व साधना की दृष्टि से हेय-उपादेय के रूप में किया गया है। जैन धर्म का मुख्य लक्ष्य मोक्ष प्राप्त करना है, सर्वबंधनों से मुक्ति पाना है। अत: तत्त्वज्ञान का समस्त विवेचन इसी दृष्टि से है। चेतन और अचेतन के स्वरूप का प्रतिपादन जीव और अजीव तत्त्व में किया गया है। जीव का कौनसा भाव, प्रयास व प्रवृत्ति उसके साध्य मोक्ष की प्राप्ति में, आत्मा की पवित्रता में सहायक है उसे पुण्य तत्त्व में तथा कौनसा भाव व प्रवृत्ति मुक्ति में बाधक व आत्मा के पतन में हेतु है उसे पाप तत्त्व में प्रतिपादित किया गया है। उस पाप प्रवृत्ति में पापकर्मों का सर्जन व बंधन होने का वर्णन आस्रव व बंध तत्त्व में किया गया है। आस्रव के निरोध के हेतुओं का वर्णन संवर तत्त्व में और बंध के क्षय के हेतुओं का वर्णन निर्जरा तत्त्व में किया गया है। अपने लक्ष्य मुक्ति के स्वरूप व उसकी प्राप्ति की साधना का वर्णन मोक्ष तत्त्व में किया गया है। तत्त्वों का इस प्रकार का प्रतिपादन पं. श्री सुखलालजी संघवी ने तत्त्वार्थ सूत्र