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--- पुण्य-पाप तत्त्व
अस्थिर, शुभ-अशुभ आदि) समचतुरस्रसंस्थान आदि 6 संस्थान, वर्णादि चार, अगुरुलघु आदि चार और प्रत्येक शरीर, साता-असाता में से कोई एक प्रकृति, मनुष्य गति, पंचेन्द्रिय जाति, सुभग, त्रसादि तीन, आदेय, यश:कीर्ति, तीर्थङ्कर, मनुष्यायु एवं उच्चगोत्र ये 12 प्रकृतियाँ उदय योग्य हैं।
_ -गोम्मटसार कर्मकांड, 271-272 उदीरणा-जो कर्म प्रकृतियाँ उदयकाल से बाहर हैं, उन्हें उदय में ले आना उदीरणा है। ‘उदय-उदीरणा' कर्मग्रन्थ भाग 2 गाथा 23 के अनुसार सब गुणस्थानों में उदय के समान ही उदीरणा की संख्या होती है, परंतु साता वेदनीय, असातावेदनीय और मनुष्यायु इन तीन प्रकृतियों की उदीरणा सातवें गुणस्थान से लेकर तेरहवें गुणस्थान तक नहीं होती है। चौदहवें गुणस्थान में किसी भी प्रकृति की उदीरणा नहीं होती है।
सत्ता-कर्मों का आत्म-प्रदेशों के साथ स्थित रहना सत्ता है। तेरहवें-चौदहवें गुणस्थान में सत्ता इस प्रकार है
पणसीइ सजोगि अजोगि दुचरिमे देवखगइगंधदुगं। फासट्ठ वन्नरसतणुबंधणसंघायण-निमिणं ।। संघयण अथिर संठाण-छक्क अगुरुलहु चउअपज्जत्तं। सायं च असायं वा परित्तुवंगतिग सुसरनियं।। बिसयरिखओ च चरिमे तेरस मणुयतसतिग जसाइज्ज। सुभगजिणुच्चं पणिंदिय तेरस सायासाएगयरछे ओ।।
गाथार्थ-सयोगी और अयोगी गुणस्थान के द्विचरम समय तक 85 प्रकृतियों की सत्ता रहती है। उसके बाद देवद्विक, विहायोगति द्विक्, गंधद्विक, आठ स्पर्श, वर्ण, रस, शरीर, बंधन और संघातन इन सबकी पाँच-पाँच, निर्माण, संहनन षट्क, अस्थिरषट्क, संस्थानषट्क, अगुरुलघुचतुष्क, अपर्याप्त, साता अथवा असातावेदनीय, प्रत्येकत्रिक,