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--- पुण्य-पाप तत्त्व है। इसके विपरीत पाप प्रकृतियों का अनुभाग उत्कृष्ट होता है तो हलाहल विष का कार्य करता है। अभिप्राय यह है कि पुण्य का अनुभाग जीव के लिए शुभफलदायक व अत्यन्त हितकारी है और पाप का अनुभाग अशुभफलदायक व अत्यन्त अहितकारी है। -गोम्मटसार कर्मकाण्ड, 184
प्रदेशबंध-जीव के साथ कर्म परमाणुओं के स्कंधों का संबंध होने को प्रदेशबंध कहते हैं। कर्मों का प्रदेश बंध योगों से होता है। यथा
अप्पयरपयडिबंधी उक्कडजोगी व सन्निपज्जतो। कुणइ पएसुक्कोसं जहन्नयं, तस्स वच्चासे।।
-पंचम कर्मग्रन्थ, 89
उक्कड-जोगो सण्णी, पज्जतो पयडिबंधमप्पदरो। कुणदि पदेसुक्कस्सं, जहण्णये जाण विवरीयं।।
-गोम्मटसार कर्मकांड, 210 अर्थ-अल्पतर प्रकृतियों का बंध करने वाला, उत्कृष्ट योगधारक और पर्याप्त संज्ञी जीव उत्कृष्ट प्रदेश बंध करता है तथा इसके विपरीत अर्थात् बहुत प्रकृतियों का बंध करने वाला, जघन्य योगधारक, अपर्याप्त जीव जघन्य प्रदेश बंध करता है।
प्रदेश बंध मुख्यत: योगों से होता है। इस बंध में संक्लेश-विशुद्धि का विशेष स्थान नहीं है और किसी भी पुण्य व पाप कर्म की प्रकृतियों के प्रदेश बंध के न्यूनाधिक होने का इनके अनुभाव पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। जैसे कोई मधुर या कटु वस्तु बड़ी हो या छोटी हो, इससे इसके रस या स्वाद में कोई अंतर नहीं होता है। इसी प्रकार पुण्य-पाप की किसी प्रकृति के प्रदेश कितने ही कम हों या अधिक हों, इससे उसके फल पर कुछ भी