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कषाय की मंदता पुण्य है, मंद कषाय पाप है
----- 41 अनुभाव का क्षय होता है। अत: यह क्षायोपशमिक भाव का सूचक है। इसके विपरीत कषाय की मंदता होने पर भी शेष रहा कषाय का जो द्विस्थानिक, त्रिस्थानिक अनुभाव उदय में आ रहा है वह औदयिक भाव है। यह औदयिक भाव ही कर्मबंध (स्थितिबंध) का हेतु है। क्षायोपशमिक (कषाय की मंदता) भाव कर्मक्षय का हेतु होने से शुभभाव है, शुद्धोपयोग है, विशुद्धिभाव है, पुण्य है, निर्जरा है, जबकि कषाय का औदयिक भाव अशुभ भाव है, अशुद्धोपयोग है, पाप है।
जिसका फल शुभ मिले वह शुभ कर्म है। जिसका फल अशुभ मिले वह अशुभ कर्म है। कर्म का फल उसके अनुभाव से ही मिलता है। फलदान शक्ति अनुभाव है, स्थिति व प्रदेश नहीं है। प्रदेश घटने-बढ़ने से अनुभाव व रस घटता-बढ़ता नहीं है। जैसे मिश्री को तोड़ देने से, काट देने से उसके रस (स्वाद) में कोई कमी नहीं होती, यह तथ्य कर्म के अनुभाव पर भी घटित होता है।
__कषाय के क्षय से पाप प्रकृतियों की प्रकृति, स्थिति, अनुभाग आदि का क्षय होता है तथा पुण्य प्रकृतियों के स्थिति बंध का भी क्षय होता है, परंतु पुण्य प्रकृतियों के अनुभाग में वृद्धि होती है। अत: पुण्य प्रकृतियों के अनुभाग का हेतु कषाय का क्षय है कषाय का उदय नहीं, अर्थात् क्षायोपशमिक, औपशमिक एवं क्षायिक भाव है, औदयिक भाव नहीं है। प्रत्युत औदयिक भावों में कमी है। क्षायोपशमिक आदि भावों से मोक्ष होता है, बंध नहीं होता है। अत: पुण्य व पुण्य का अनुभाग मोक्ष-प्राप्ति का सूचक है। कषाय की क्षीणता, मंदता एवं कमी को ही विशुद्धि, शुभभाव, शुभयोग, क्षायोपशमिक भाव या पुण्य कहा जाता है। अत: ‘पुण्य' कर्म क्षय का, मोक्ष का हेतु है।