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कर्म - सिद्धांत और पुण्य-पाप
जैन दर्शन में प्रतिपादित तत्त्व ज्ञान और कर्म-सिद्धांत विश्व में अद्वितीय है। तत्त्वज्ञान में प्राणी के लिए हेय-उपादेय का वर्णन है और कर्म-सिद्धांत में प्राणी के जीवन से संबंधित समस्त स्थितियों का विवेचन है। यहाँ कर्म-सिद्धांत के परिप्रेक्ष्य में ‘पुण्य-पाप' पर संक्षेप में प्रकाश डाला जा रहा है।
कर्म-सिद्धांत
जैन दर्शन में ज्ञानावरण आदि आठ मूल कर्म कहे गये हैं और इन आठ कर्मों की उत्तर प्रकृतियाँ 148 कही गई हैं। इन्हीं 148 प्रकृतियों को अभेद विवक्षा से बंध योग्य 120 प्रकृतियों में समाहित किया गया हैकर्मबंध चार प्रकार का है- 1. प्रकृति बंध, 2. स्थिति बंध, 3. अनुभाग बंध और 4. प्रदेश बंध।
प्रकृति बंध-कर्मों के भिन्न-भिन्न स्वभाव के उत्पन्न होने को प्रकृति बंध कहते हैं । प्रकृति बंध की अपेक्षा पुण्य-पाप की प्रकृतियाँ इस प्रकार हैं
सुरनरतिगुच्च सायं तसदस तणुवंगवइरचउरंसं । परघासग तिरिआऊ वन्नचउ पणिदि सुभखगइ ||15|| बायालपुन्नपगई अपढम- संठाण - खगइ - संघयणा । तिरियदुग असायनीयोवघाय इगविगल निरयतिगं।।16।।