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कर्म-सिद्धांत और पुण्य-पाप ---
------ 45 सव्वाण वि जिट्ठठिई असुभा जं साइसंकिलेसेणं। इयरा विसोहिओ पुण मुत्तुं नरअमरतिरियाउं।।
___-पंचमकर्म ग्रन्थ, 52 सव्वदिट्ठीणमुक्कस्सओ दुउक्कस्स संकिलेसेण। विवरीदेण जहण्णो आउगतियवज्जियाणंतु।।
-गोम्मटसार कर्मकाण्ड, 134 अर्थ-मनुष्य, देव और तिर्यंच आयु को छोड़कर शेष सभी प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति अति संक्लेश परिणामों में बँधने के कारण अशुभ है। इनकी जघन्य स्थिति का बंध विशुद्धि द्वारा होता है। तीन आयु का उत्कृष्ट स्थिति बंध विशुद्धि परिणामों से और जघन्य स्थिति बंध संक्लेश परिणामों से होता है।
अनुभाग बंध-कर्म की फलदान शक्ति को अनुभाग कहते हैं। उत्कृष्ट और जघन्य अनुभाग के संबंध में कहा है
बादालं तु पसत्था विसोहिगुणमुकडस्स तिव्वाओ। बासीदि अप्पसत्था मिच्छुक्कडसंकिलिइट्ठस्स।।
___ -गोम्मटसार कर्मकाण्ड, 164 तिव्वो असुहसुहाणं संकेसविसोहिओ विवज्जयउ। मंदरसो.....
-पंचम कर्मग्रन्थ, 63 अर्थात् 42 पुण्य प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभाग उत्कृष्ट विशुद्धि गुण वाले जीवों के होता है और 82 पाप प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभाग उत्कृष्ट संक्लेश परिणाम वाले मिथ्यादृष्टि जीवों के होता है। आतप, उद्योत, तिर्यञ्चायु, मनुष्यायु इन चार पुण्य प्रकृतियों के अतिरिक्त शेष 38 पुण्य प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभाग बंध सम्यग्दृष्टि जीवों के ही होता है, मिथ्यात्वी जीवों के नहीं। इन 38 प्रकृतियों में से देवायु का