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पुण्य-पाप तत्त्व
पापास्रव में तथा बध्यमान एवं सत्ता में विद्यमान पाप प्रकृतियों के अनुभाग व स्थिति में वृद्धि होती है और पुण्य प्रकृतियों का पाप प्रकृतियों में संक्रमण होने से भी पाप प्रकृतियों के प्रदेशों में वृद्धि होती है। इस वृद्धि को ही पाप का उपार्जन कहा है और इसी के हेतु को संक्लेश कहा है। जिससे किसी में वृद्धि नहीं हो, उसे उसके उपार्जन का अर्थात् आस्रव का हेतु नहीं कहा जा सकता। जैसा कि कहा है
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विशुद्धि-संक्लेशांगं चेत् स्व- परस्थं सुखासुखम्। पुण्यपापास्रवो युक्तो न चेद् व्यर्थस्तवार्हतः । । अर्थात् आचार्य श्री समन्तभद्र का फरमाना है कि सुख-दुःख अपने को हो अथवा दूसरे को हो, वह यदि विशुद्धि का अंग हो तो पुण्यास्रव का और संक्लेश का अंग (रूप) हो तो पापास्रव का हेतु है। यदि वह इन दोनों में से किसी का भी अंग न हो तो व्यर्थ है, निष्फल है।
- देवागमकारिका 95
तिव्वो असुहसुहाणं संकेस - विसोहिओ विवज्जउ मंदरसो || अर्थात् अशुभ प्रकृतियों का तीव्र अनुभाग संक्लेश से और शुभ प्रकृतियों का तीव्र अनुभाग विशुद्धि से होता है। इसके विपरीत मंदरस का हेतु है- अर्थात् अशुभ प्रकृतियों के रस में मंदता विशुद्धि से और शुभ प्रकृतियों के रस में मंदता संक्लेश से होती है।
-पंचम कर्म-ग्रंथ गाथा 63