________________
36
------
- पुण्य-पाप तत्त्व उद्देशक 7 के उपर्युक्त कथन का विरोध हो जायेगा। जो किसी को भी इष्ट नहीं होगा। इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि संक्लेश-विशद्धि का, पाप-पुण्य तत्त्व का संबंध कषाय में हानि-वृद्धि होने से है, कम व अधिक कषाय से नहीं है।
जैसाकि भगवती सूत्र में प्राप्त निम्न वर्णन से स्पष्ट होता है
प्रश्न-से णूणं भंते! कण्हलेस्से जाव सुक्कलेस्से भवित्ता नीललेस्सेसु नेरइएसु उववज्जति?
उत्तर-हंता गोयमा! जाव उववज्जति। प्रश्न-से केणटेणं जाव उववज्जंति?
उत्तर-गोयमा! लेस्सट्ठाणेसु संकिलिस्समाणेसु वा विसुज्झ-माणेसु वा नीललेस्सं परिणमइ, नीललेस्सं परिणमित्ता नीललेस्सेसु नेरइएसु उववज्जंति से तेणटेणं गोयमा! जाव उववज्जंति।
-भगवती सूत्र, शतक 13, उद्देशक 1 प्रश्न-हे भगवन्! कृष्णलेशी यावत् शुक्ललेशी होकर जीव नील लेश्या वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है?
उत्तर-हाँ गौतम! यावत् उत्पन्न होता है। प्रश्न-हे भगवन्! इसका क्या कारण है?
उत्तर-हे गौतम! लेश्या के स्थान संक्लेश को प्राप्त होते हुए और विशुद्धि को प्राप्त होते हुए वह जीव नीलेलेश्या रूप में परिणत होता है और नीललेश्या रूप से परिणत होने के बाद वह नीललेशी नैरयिकों में उत्पन्न होता है। इसलिये हे गौतम! पूर्वोक्त रूप से कहा गया है।
यही वर्णन आगे के सूत्रों में कापोत आदि लेश्याओं के लिए भी किया गया है। वहाँ अशुभ लेश्या की ओर बढ़ने को संक्लेश और शुभ लेश्या की ओर बढ़ने को विशुद्धि कहा गया है।