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------ पुण्य-पाप तत्त्व
वंदणएणं भंते! जीवे किं जणयइ? वंदणएणं नीयागोयं कम्मं खवेइ। उच्चागोयं कम्मं निबंधइ। सोहग्गं च णं
अपडिहयं आणाफलं निव्वत्तेइ दाहिणभावं च णं जणयइ।। भंते! वंदना से जीव क्या उपलब्ध करता है।
वंदना से जीव नीच गोत्र कर्म का क्षय करता है एवं उच्च गोत्र का बंध करता है। वह अप्रतिहत सौभाग्य को प्राप्त करता है, उसकी आज्ञा (सर्वत्र) अबाधित होती है (अर्थात् आज्ञा शिरोधार्य हो, ऐसा फल प्राप्त होता है) तथा दाक्षिण्यभाव (जनता के द्वारा अनुकूल भाव) को प्राप्त करता है। यहाँ पुण्य का बंधन उपादेय कहा है।
-उत्तराध्ययन सूत्र, अध्ययन 29, सूत्र 10 नमो अरिहंताणं, नमो सिद्धाणं, नमो आयरियाणं, नमो उवज्झायाणं, नमो लोए सव्वसाहूणं, एसो पंच नमुक्कारो, सव्वापावप्पणासणो, मंगलाणं च सव्वेसिं, पढम हवई मंगलं।
अरिहंतों को नमस्कार हो, सिद्धों को नमस्कार हो, आचार्यों को नमस्कार हो, उपाध्यायों को नमस्कार हो, सब साधुओं को नमस्कार हो। ऐसे पाँच नमस्कार सर्व पापों का नाश करने वाले हैं, मंगलकारी हैं और सब मंगलों में श्रेष्ठ मंगल हैं।
उपर्युक्त नमस्कार सूत्र में नमस्कार पुण्य को सब पापों का नाश करने वाला तथा श्रेष्ठ मंगलकारी कहा है। इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि पुण्य से पाप का क्षय होता है।
एगओ विरई कुज्जा, एगओ य पवत्तणं।
असंजमे नियत्तिं च, संजमे य पवत्तणं।। एक से निवृत्ति करे और एक में प्रवृत्ति करे अर्थात् असंयम से निवृत्ति करे और संयम में प्रवृत्ति करे। -उत्तराध्ययन सूत्र, अध्ययन 31, गाथा 2