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पाप ही त्याज्य है, पुण्य नहीं --------
-------- 21 साहरे हत्थपाए य, मणं पंचिंदियाणि य। पावगं च परिणामं, भासादोसं च तारिसं।।17।।
जैसे कछुआ अपने अंगों को अपने शरीर में संकुचित कर लेता है, उसी प्रकार बुद्धिमान पुरुष को अध्यात्म-भावना में अपने पापों को संकुचित कर लेना चाहिए।
-सूत्रकृतांग 1.8.16-17 ज्ञानीजन, कछुए की भाँति हाथ-पैर आदि अंगों को, मन को, पाँचों इन्द्रियों को, भाषा को एवं भावों को पाप-प्रवृत्तियों से रोक लेते हैं।
जयं चरे जयं चिट्टे, जयमासे जयं सए।
जयं भुंजंतो भासंतो, पावकम्मं न बंधइ।। यतना से चले, यतना से खड़ा रहे, यतना से बैठे, यतना से सोए, यतना से खाए और यतना पूर्वक बोले तो पाप कर्म का बंध नहीं होता है।
-दशवैकालिक सूत्र, 4.8 सव्वभूयप्पभूयस्स, सम्मं भूयाइं पासओ। पिहियासवस्स दंतस्स, पाव कम्मं न बंधइ।।
जो सब जीवों को अपने समान समझता है और अपने समान देखता है, इससे वह आस्रव को रोक देता है। ऐसी जितेन्द्रिय आत्मा को पाप कर्म का बंध नहीं होता है।
___ -दशवैकालिक सूत्र, 4.9 कायगुत्तयाए णं भंते! जीवे किं जणयइ?
कायगुत्तयाए णं संवरं जणयइ। संवरेणं कायगुत्ते पुणो पावासवनिरोहं करेइ।। कायगुप्ति से जीव को क्या प्राप्त होता है?
कायगुप्ति से जीव संवर (अशुभ आस्रव प्रवृत्ति के निरोध) को प्राप्त होता है। संवर से कायगुप्त होकर (साधक) फिर से होने वाले पापास्रव का निरोध करता है। -उत्तराध्ययन सूत्र, अध्ययन 29, सूत्र 55