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----- पुण्य-पाप तत्त्व
पंचसमिओ तिगुत्तो, अकसाओ जिइंदिओ।
अगारवो य णिस्सल्लो, जीवो हवह अणासवो।।
पाँच समिति वाला, तीन गुप्ति वाला, कषाय रहित, जितेन्द्रिय तीन गारव रहित और तीन शल्य रहित जीव आस्रव रहित होता है, यहाँ पापास्रव का ही निषेध किया गया है। -उत्तराध्ययन सूत्र, अध्ययन 30, गाथा 3
खवेंति अप्पाणममोहदंसिणो, तवे रया संजम अज्जवे गुणे।
धुणंति पावाइं पुरेकडाई, णवाइं पावाइं ण ते करेंति।।
निर्मोह भाव का दर्शन करने वाले तप, संयम और आर्जव गुण में रत साधक पूर्वकृत पाप कर्मों का क्षय करते हैं और नवीन पाप कर्मों का बंध नहीं करते हैं। इस गाथा में निर्मोह-वीतरागता के साधक के लिए तप, संयम, आर्जव आदि गुणों से पाप कर्मों का क्षय होना और नये पाप कर्मों का बंध न होना ही कहा है। पुण्य कर्मों का या सब कर्मों का क्षय होना नहीं कहा है और नवीन पुण्य कर्मों के अनुबंध का निषेध भी नहीं किया है।
-दशवैकालिक सूत्र, 6.68 सुचिण्णा कम्मा सुचिण्णफला भवंति।
दुचिण्णा कम्मा दुचिण्णफला भवंति।। अच्छे (शुभ) कर्म का फल शुभ होता है। अशुभ कर्म का फल अशुभ होता है।
-औपपातिक, 56
पाशयति पातयति वा पापं।। जो आत्मा को बाँधता है अथवा पतन करता है, वह पाप है।
-उत्तराध्ययन सूत्र, चूर्णि 2 इह लोगे सुचिण्णा कम्मा इह लोगे सुहफलविवागसंजुत्ता भवति। इह लोगे सुचिण्णा कम्मा परलोगे सुहफलविवागसंजुत्ता भवंति।।