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पाप-पुण्य का आधार :
संक्लेश-विशुद्धि
पुण्य-पाप तत्त्व का संबंध संक्लेश-विशुद्धि भावों से है। इसी विषय पर यहाँ विचार किया जा रहा है।
शुभ: पुण्यस्य। अशुभ: पापस्य।। अर्थ-शुभ योग पुण्य का आस्रव है और अशुभ योग पाप का आस्रव है। इन सूत्रों की टीका करते हुए पं. श्री सुखलाल जी संघवी लिखते हैं“काययोग आदि तीनों योग शुभ भी हैं और अशुभ भी। योगों के शुभत्व और अशुभत्व का आधार भावना की शुभाशुभता है। शुभ उद्देश्य से प्रवृत्त योग शुभ और अशुभ उद्देश्य से प्रवृत्त योग अशुभ है। कार्य-कर्मबन्ध की शुभाशुभता पर योग की शुभाशुभता अवलंबित नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने से सभी योग अशुभ ही हो जायेंगे, कोई योग शुभ नहीं रह जायेगा, जबकि शुभ योग में भी आठवें आदि गुणस्थानों में अशुभ ज्ञानावरणीय आदि कर्मों के बंध का कारण होता है।"
-तत्त्वार्थसूत्र 6.3-4 “शुभ योग का कार्य पुण्य-प्रकृति का बंध और अशुभ योग का कार्य पाप प्रकृति का बंध है। प्रस्तुत सूत्रों का यह विधान आपेक्षिक है, क्योंकि संक्लेश (कषाय) की मंदता के समय होने वाला योग शुभ और