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पुण्य-पाप तत्त्व और पुण्य-पाप कर्म में अंतर ---
समाधान-हिंसा, चोरी और मैथुन आदि अशुभ काययोग है। असत्य वचन, कठोर वचन और असभ्य वचन आदि अशुभ वचनयोग है। मारने का विचार, ईर्ष्या और डाह आदि अशुभ मनोयोग है तथा इनसे विपरीत शुभकाययोग, शुभ वचनयोग और शुभ मनोयोग है।
शंका-योग के शुभ और अशुभ ये भेद किस कारण से हैं?
समाधान-जो योग शुभ परिणामों के निमित्त से होता है वह शुभ योग है और जो योग अशुभ परिणामों के निमित्त से होता है वह अशुभ योग है। शायद कोई यह माने कि शुभ और अशुभ कर्म का कारण होने से योग शुभ और अशुभ होता है सो ऐसी बात नहीं है, क्योंकि यदि इस प्रकार इनका लक्षण कहा जाता है तो शुभयोग हो ही नहीं सकता, क्योंकि शुभयोग के समय भी शेष रहे कषाय के उदय से ज्ञानावरणीय आदि कर्मों का बंध होता है। इसलिए शुभ और अशुभ योग का जो लक्षण यहाँ पर किया है वह सही है। जो आत्मा को पवित्र करता है या जिससे आत्मा पवित्र होती है, वह शुभ है, पुण्य है। जैसे सातावेदनीय आदि तथा जो आत्मा को शुभ से बचाता है वह पाप है, जैसे असातावेदनीय आदि।
यहाँ विचारणीय यह है कि जिससे पाप प्रकृतियाँ बँधे उसे अशुभयोग माना जाय तो ज्ञानावरणीय, उपघात आदि बीसों ध्रुव बँधने वाली पाप प्रकृतियाँ सदैव बँधती रहती हैं। अत: दसवें गुणस्थान तक सदैव अशुभ योग ही मानना होगा, कभी शुभ योग हो ही नहीं सकेगा। इसी प्रकार तैजस-कार्मण शरीर, अगुरुलघु आदि पुण्य प्रकृतियाँ भी सदवै बँधती रहती हैं। अत: दसवें गुणस्थान तक शुभ योग मानना ही पड़ेगा। कभी अशुभ योग हो ही नहीं सकेगा। इस प्रकार शुभ योग और अशुभ योग दोनों को सदैव एक साथ मानना पड़ेगा या फिर दोनों का सदैव अभाव मानना