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पाप ही त्याज्य है, पुण्य नहीं -----
___ यहाँ साधु के लिए सद्प्रवृत्ति-शुभयोग-पुण्य के आचरण का विधान है, निषेध नहीं है।
रागदोसे य दो पावे, पावकम्मपवत्तणे। ___ जे भिक्खू रुंभइ णिच्चं, से ण अच्छइ मंडले।।
पाप कर्म में प्रवृत्ति कराने वाले राग और द्वेष ये दो पाप हैं। जो साधु सदा इन्हें रोकता है वह संसार सागर में परिभ्रमण नहीं करता है। यहाँ पाप और पाप प्रवृत्ति के त्याग से संसार परिभ्रमण का निषेध होना कहा है, पुण्य प्रवृत्ति के त्याग से नहीं। -उत्तराध्ययन सूत्र, अध्ययन 31, गाथा 3
दंडाणं गारवाणं च, सल्लाणं च तियं तियं। जे भिक्खू चयइ णिच्चं, से ण अच्छइ मंडले।।
जो साधु तीन दंड, तीन गारव तथा तीन शल्य को सदैव छोड़ देता है, वह संसार में परिभ्रमण नहीं करता। -उत्तराध्ययन सूत्र, अध्ययन 31, गाथा 4
असुहादो विणिवित्तिं, सुहे पवित्तिं, य जाण चारित्तं। अर्थात् अशुभ से निवृत्ति और शुभ में प्रवृत्ति को ही चारित्र समझो।
जहा उ पावगं कम्मं, राग दोस-समज्जियं।
खवेइ तवसा भिक्खू, तमेगग्गमणो सुण।। राग-द्वेष से उत्पन्न हुए पाप कर्मों का जिस प्रकार, साधु तप के द्वारा क्षय कर देता है, उसे एकाग्रचित होकर सुनो।
-उत्तराध्ययन सूत्र, अध्ययन 30, गाथा 1 पाणिवह-मुसावाया, अदत्त-मेहुण-परिग्गहा विरओ।
राइभोयण-विरओ, जीवो हवइ अणासवो।। हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन, परिग्रह एवं रात्रि भोजन से निवृत्त हुआ जीव आस्रव रहित होता है। -उत्तराध्ययन सूत्र, अध्ययन 30, गाथा 2