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---- पुण्य-पाप तत्त्व
तुल्लम्मि अवराधे परिणामवसेण होति नाणत्।।
बाहर से समान अपराध होने पर भी अंतर के परिणामों की तीव्रता-मंदता के कारण दोषों की न्यूनाधिकता होती है।
-बृहत्कल्पभाष्य 4974
एएसिं तु विवच्चासे, रागदोस-समज्जियं।
खवेइ उ जहा भिक्खू, तमेगग्गमणो सुण।। इनके (ऊपर बतलाए हुए) विपरीत होने पर राग-द्वेष से संचित किये कर्मों को जिस प्रकार साधु क्षय कर देता है उस विधि को एकाग्रचित्त होकर सुनो।
-उत्तराध्ययन सूत्र, अध्ययन 30, गाथा 4 जहा महातलायस्स, सण्णिरुद्धे जलागमे। उस्सिंचणाए तवणाए, कमेणं सोसणा भवे।।
एवं तु संजयस्सावि, पावकम्मणिरासवे। भवकोडीसंचियं कम्मं, तवसा णिज्जरिज्जइ।। जिस प्रकार किसी बड़े तालाब के जल आने के मार्गों को रोककर उस तालाब का पानी बाहर निकालने से तथा सूर्य के ताप द्वारा वह तालाब धीरे-धीरे सूख जाता है, उसी प्रकार संयमी साधुओं के भी नवीन पापकर्मों को रोक देने पर करोड़ों भवों के संचित कर्म तप द्वारा क्षय हो जाते हैं। इन सब गाथाओं में अनास्रव में पाप कर्मों के आस्रव के निरोध को ही ग्रहण किया गया है।
-उत्तराध्ययन सूत्र, अध्ययन 30, गाथा 5-6 ऊपर उत्तराध्ययन सूत्र के तीसवें अध्ययन की कतिपय गाथाएँ दी गई हैं। इस अध्ययन की प्रथम गाथा में तप से राग-द्वेष से उत्पन्न पाप कर्मों का क्षय होता है, यह स्पष्ट शब्दों में कहा गया है। यह नहीं कहा गया कि सब कर्म क्षय होते हैं या पुण्य कर्म क्षय होते हैं। आगे गाथा 6 में पाप कर्मों के आस्रव का ही निषेध किया है तथा दूसरी गाथा में हिंसा, झूठ, चोरी,