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--- पुण्य-पाप तत्त्व
(8) जहा किंपागफलाणं परिणामो न सुंदरो।
एवं भुत्ताण भोगाणं, परिणामो न सुंदरो।।
जैसे किंपाक नामक फल के भक्षण का परिणाम अच्छा नहीं होता है अर्थात् हलाहल विष का काम करता है, उसी प्रकार भोगे हुए विषय भोगों का परिणाम भी अत्यन्त कष्ट प्रदायक एवं अनिष्ट जनक होता है। आशय यह है कि भोग ऊपर से बड़े सुहावने, लुभावने, सुंदर, सुखद एवं मधुर लगते हैं, परंतु उनका परिणाम बड़ा दु:खद होता है। संसार के समस्त दु:खों का कारण काम-भोग ही हैं।
-उत्तराध्ययन सूत्र, अध्ययन 19, गाथा 18 (9) उवलेवो होइ भोगेसु, अभोगी नोवलिप्पइ।
भोगी भमइ संसारे, अभोगी विप्पमुच्चइ।। प्राणी काम-भोग भोगने से कर्मों में लिप्त होता है। अभोगी कर्मों से लिप्त नहीं होता है। भोगी संसार में भ्रमण करता है, भटकता है। अभोगी संसार से मुक्त हो जाता है, पार हो जाता है।
-उत्तराध्ययन सूत्र, अध्ययन 25, गाथा 41 (10) उवसमेण हणे कोहं, माणं मद्दवया जिणे।
मायमज्जवभावेण, लोभं संतोसओ जिणे।।
क्रोध को उपशम से अर्थात् शांति एवं क्षमा से जीतना चाहिए। मान को मृदुता से अर्थात् विनम्रता एवं कोमलता से जीतना चाहिए। माया को आर्जव से अर्थात् ऋजुता एवं सरलता से जीतना चाहिए तथा लोभ को संतोष से अर्थात् निष्काम भाव से जीतना चाहिए।
-दशवैकालिक सूत्र 8.39
(11) जहा कुम्मे सअंगाई, सए देहे समाहरे। एवं पावाइं मेहावी, अज्झप्पेण समाहरे।।16।।