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पाप ही त्याज्य है, पुण्य नहीं -----
------ 19 तथा मान-सम्मान की अभिलाषा रखने वाला बहुत पाप उपार्जन करता है और माया शल्य का आचरण करता है। (4) सुवण्णरूप्पस्स उ पव्वया भवे, सिया हु केलाससमा असंखया।
नरस्स लुद्धस्स न तेहिं किंचि, इच्छा हु आगाससमा अणंतिया।।
__ कैलाश पर्वत के समान सोने-चाँदी के असंख्य पर्वत हों और वे मिल जायें तो भी लोभी मनुष्य को किंचित् मात्र तुष्टि नहीं होती, क्योंकि इच्छा आकाश के समान अनंत है।
-उत्तराध्ययन सूत्र, अध्ययन 9, गाथा 48 (5) सल्लं कामा विसं कामा, कामा आसीविसोवमा।
कामे य पत्थेमाणा, अकामा जंति दोग्गइं।। काम-भोग शल्य के समान हैं और दृष्टि-विष सर्प के समान है। काम-भोग की अभिलाषा करने वाले, काम-भाोग न भोगने पर भी दुर्गति को प्राप्त होते हैं अर्थात् दु:खी होते हैं।
-उत्तराध्ययन सूत्र, अध्ययन 9, गाथा 53 (6) जे केइ सरीरे सत्ता, वण्णे रूवे य सव्वसो।
मणसा काय-वक्केणं, सव्वे ते दुक्खसंभवा।।
जो कोई प्राणी मन, वचन और काया से शरीर, रूप, वर्ण आदि में आसक्त हैं, वे दु:ख के भाजन हैं अर्थात् उन्हें दुःख भोगना ही पड़ता है।
-उत्तराध्ययन सूत्र, अध्ययन 6, गाथा 12 (7) खणमेत्तसोक्खा बहुकालदुक्खा, पगामदुक्खा अणिगामसोक्खा। संसारमोक्खस्स विपक्खभूया, खाणी अणत्थाण उ कामभोगा।।
काम-भोग क्षणभर सुख देने वाले हैं और बहुत समय तक दु:ख देने वाले हैं। कामभोग अत्यल्प सुख देने वाले हैं और अत्यन्त दु:ख देने वाले हैं। ये संसार से मुक्ति पाने वाले के लिए विरोधी हैं और समस्त अनर्थों की खान हैं।
-उत्तराध्ययन सूत्र, अध्ययन 14, गाथा 13