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पाप ही त्याज्य है, पुण्य नहीं
सम्पूर्ण आगमों का सार पापों का त्याग करना है। पापों के त्याग में ही जीव का कल्याण है और पापों के सेवन में ही अकल्याण एवं अहित है।
साधना में सर्वत्र पाप के त्याग का ही विधान है, पुण्य के त्याग का विधान कहीं भी नहीं है। साधना का प्रारंभ होता है सामायिक से, समत्व से। सामायिक के प्रतिज्ञा पाठ में 'सावज्जं जोगं पच्चक्खामि' आया है इसका अर्थ है सावद्ययोग-पापकारी प्रवृत्ति का त्याग करता हैं। इस प्रतिज्ञा पाठ से पुण्य प्रवृत्ति के त्याग का कहीं भी विधान नहीं है। साधना के क्षेत्र में आगे भी जितने पाठ हैं उनमें पापों के त्याग का ही विधान है। किसी भी पाठ में किसी पुण्य प्रवृत्ति के त्याग का आदेश-निर्देश, उपदेश नहीं है। यहाँ तक कि साधना का अंतिम चरम बिन्दु संलेखना है। उसके प्रतिज्ञा पाठ में भी ‘सव्वं पाणाइवायं जाव मिच्छादसण सल्लं पच्चक्खामि' पाठ आया है। इसमें भी अठारह ही पाप का त्याग किया गया है। पुण्य के त्याग का यहाँ पर भी कोई विधान नहीं है। इससे यह प्रमाणित होता है कि पुण्य के त्याग का साधना में कहीं भी कोई स्थान नहीं है। यह तथ्य निम्नाङ्कित आगम उद्धरणों से भी पुष्ट होता है यथा
(1) कहं णं भंते! जीवा गुरुयत्तं हव्वमागच्छंति? गोयमा! पाणाइवाएणं मुसावाएणं अदि. मेहुणं. मायामोसमिच्छादंसणसल्लेणं, एवं खलु गोयमा! जीवा गुरुयत्तं हव्वमागच्छंति। कहं णं भंते! जीवा लहुयत्तं हव्वमा