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पाप तत्त्व : स्वरूप और भेद
पाप व पुण्य का संबंध प्रवृत्ति से है। प्रवृत्ति दो प्रकार की होती है-(1) दुष्प्रवृत्ति और (2) सद्प्रवृत्ति। जिस प्रवृत्ति से अहित हो, हानि हो, दु:ख हो, पतन हो वह दुष्प्रवृत्ति है, पाप है। “पातयति आत्मानं इति पापम्” इस व्युत्पत्ति के अनुसार जिस प्रवृत्ति से आत्मा का पतन हो, हानि हो, अहित हो वह दोष है, वह पाप है। दोष युक्त प्रवृत्ति को दुष्प्रवृत्ति कहा जाता है। दोष, अधर्म, पाप, दुष्कर्म, दुष्प्रवृत्ति आदि शब्द पर्यायवाची हैं। दुष्कर्म चाहे मन का हो, चाहे वचन को हो, चाहे काया का हो, सभी पाप हैं, दोष हैं, अधर्म हैं, बुरे हैं। कोई भी अपने को दोषी, पापी, दुष्ट कहलाना पसंद नहीं करता है। अत: दोष, पाप या बुराई के त्याग में ही अपना हित है, कल्याण है।
हमारे प्रति की गई जिस क्रिया को, प्रवृत्ति को, व्यवहार को हम बुरा मानते हैं वह दोष है, बुराई है, पाप है। जैसे कोई हमें मारता-पीटता है, कष्ट देता है, पीड़ा पहुँचाता है, झूठ बोलता है, हमारी चोरी करता है, हमें ठगता है, हानि पहुंचाता है, धोखा देता है, हमारे पर क्रोध करता है, द्वेष करता है, हमारी निन्दा करता है, बुराई करता है, हमारा बुरा करता है तो हम सबको उसका मारना-पीटना, झूठ बोलना, चोरी करना आदि ये सब प्रवृत्तियाँ या व्यवहार बुरे लगते हैं। हम इन सब कार्यों व इन कार्यों