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पाप तत्त्व : स्वरूप और भेद --- को करने वालों को बुरा समझते हैं। अत: ये सब दुष्कर्म व पाप हैं। यह ज्ञान बालक से वृद्ध तक, अज्ञ से विज्ञ तक, मानव मात्र को स्वत: प्राप्त है, इसमें किसी गुरु व ग्रन्थ की अपेक्षा नहीं है। अत: यह ज्ञान स्वयं-सिद्ध है, स्वाभाविक ज्ञान है, किसी की देन नहीं है, निजज्ञान है। स्वंय सिद्ध होने से इस ज्ञान के लिए अन्य किसी भी प्रमाण की आवश्यकता नहीं है।
यह नैसर्गिक नियम है कि जैसा बीज बोया जाता है वैसा ही फल लगता है। उपर्युक्त सब कार्य बुरे हैं, अत: इन सबका फल बुरा, अनिष्ट व दु:ख रूप ही मिलता है। अत: जिन्हें दुःख से, अनिष्ट से बचना इष्ट है उन्हें इन सब दुष्कर्मों से, पापों से बचना ही होगा। कोई पाप भी करे और उसके परिणाम से दु:ख न पावे यह कदापि संभव नहीं है। पाप के त्याग से ही दु:ख से मुक्ति पाना संभव है, दु:ख से मुक्ति पाने का अन्य कोई उपाय नहीं है। अत: पाप के त्याग में ही सबका कल्याण है। जैन धर्म में आवश्यक सूत्र के अनुसार पाप अठारह हैं यथा-(1) प्राणातिपात-हिंसा करना (2) मृषावाद-झूठ बोलना (3) अदत्तादान-चोरी करना (4) मैथुन (5) परिग्रह (6) क्रोध (7) मान (8) माया (9) लोभ (10) राग (11) द्वेष (12) कलह (13) अभ्याख्यान-झूठा कलंक लगाना (14) पैशुन्यचुगली करना (15) पर-परिवाद-निंदा (16) रति-अरति (17) मायामृषावाद-कपटयुक्त झूठ बोलना और (18) मिथ्यादर्शन शल्य।
___ (1) प्राणातिपात-प्राणों का अतिपात करना प्राणातिपात है। प्राण दस हैं-पाँच इन्दियाँ, मन, वचन, काया, श्वासोच्छ्वास एवं आयुष्य। इनमें से किसी भी प्राण का हनन करना हिंसा या प्राणातिपात है। प्राणों के अतिपात से पीड़ा होती है। पीड़ा किसी को भी पसंद नहीं है। पैर में एक काँटा चुभ जाय, कपड़े में एक घास की सली आ जाय तो उसकी पीड़ा भी सहन नहीं होती। जब तक काँटा न निकाल दिया जाय, सली दूर न