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पुण्य तत्त्व : स्वरूप और महत्त्व ----
-------- 7 पुण्येन तीर्थङ्करश्रियं परमां नैःश्रेयसीं चाश्नुते।
अर्थ-पुण्य से तीर्थङ्कर की श्री प्राप्त होती है और परम कल्याण रूप मोक्ष लक्ष्मी भी पुण्य से मिलती है।
-पद्मपुराण, सर्ग 30, श्लोक 28 सुह-सुद्धपरिणामेहि कम्मक्खयाभावे तक्खयाणुववत्तीदो।
अर्थ-यदि शुभ या शुद्ध परिणामों अर्थात् पुण्य से कर्मों का क्षय न माना जाय तो फिर कर्मों का क्षय हो ही नहीं सकता।
-जयधवला, पुस्तक 1, पृष्ठ 6 मोक्षं याति, परमपुण्यातिशय-चारित्र-विशेषात्मकपौरुषाभ्यामेव संभवात्।
अर्थ-अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति परम पुण्य और चारित्र रूप पुरुषार्थ के द्वारा ही संभव है।
पुण्यं दानादिक्रियोपार्जनीयं शुभं कर्म। ___ अर्थ-दानादि क्रियाओं से उपार्जित किया जाने वाला शुभ कर्म पुण्य है।
-स्याद्वादमंजरी, 27 पुण्य का फल
पुण्य का फल दो प्रकार से मिलता है-(1) घाती कर्मों के क्षय के रूप में और (2) अघाती कर्मों की शुभ प्रकृतियों के उपार्जन के रूप में। यह नियम है कि आत्मा जितनी पवित्र होती है उतना ही घाती कर्मों का क्षय होता जाता है और अघाती कर्मों की शुभ प्रकृतियों का अनुभाग बढता जाता है, जो जीव के प्राणों के विकास का द्योतक एवं साधना में सहयोगी होता है।
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