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पाप तत्त्व : स्वरूप और भेद
यह सिद्ध होता है कि किसी भी व्यक्ति का शरीर अमूल्य निधि है। उसकी घात करना अमूल्य निधि को हानि पहुँचाना है, जो बहुत बड़ी क्षति है । इतनी बड़ी क्षति करना, भयंकर दोष या पाप है।
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जीवों के शरीर का हनन करना तो हिंसा है ही, उनको कष्ट देना, हानि पहुँचाना भी हिंसा है। हिंसा के अगणित रूप हैं, जैसे मारना, पीटना, कष्ट देना, युद्ध करना, शस्त्रों का निर्माण करना, शक्ति से अधिक श्रम लेना, नकली दवाईयाँ बनाना, प्रसाधन सामग्री के लिए पशु-पक्षियों को पीड़ा पहुँचाना, अत्याचार करना आदि सभी उत्पीड़क कार्य हिंसा के ही विविध रूप हैं।
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प्राणातिपात दो प्रकार का है - 1. स्व-प्राणातिपात 2. परप्राणातिपात। स्व प्राणातिपात भी द्रव्य और भाव की अपेक्षा से दो प्रकार का है-क्रोध, मान, माया, लोभ, राग-द्वेष आदि दूषित भावों से अपने ज्ञान, दर्शन, क्षमा, नम्रता, सरलता, सन्तोष आदि गुणों का अतिपात होना, घात होना भाव स्व-प्राणातिपात है। विषय कषाय के सेवन में अपनी इन्द्रियों की प्राणशक्ति का ह्रास होना द्रव्य स्व-प्राणातिपात है।
पर प्राणातिपात भी दो प्रकार का है - अपने क्रूरता, कठोरता, निर्दयता आदि दुर्व्यवहार से दूसरों के हृदय को आघात लगना, उनमें शत्रुता, द्वेष, संघर्ष का भाव पैदा होना पर भाव-प्राणातिपात है। दूसरों के शरीर, इन्द्रिय आदि प्राणों का हनन करना पर द्रव्य - प्राणातिपात है। किसी के दुर्भाव व दुष्प्रवृत्ति से दूसरों का अहित नहीं हो, तब भी स्वयं के प्राणों का अतिपात हो ही जाता है, उसे प्राणातिपात का पाप लग ही जाता है।
(2) मृषावाद-झूठ बोलना । जो बात जैसी देखी है, सुनी है व जानते हैं उसे उसी रूप में न कहकर विपरीत रूप में या अन्य रूप में कहना मृषावाद है। मृषावाद के अनेक रूप हैं - किसी पर कलंक लगाना, धरोहर