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पुण्य-पाप तत्त्व
पुण्य की आवश्यकता
साधक के लिए पुण्य आवश्यक है। जो पुण्य नहीं करता है वह धर्म नहीं कर सकता, क्योंकि आत्मा पुण्य से ही पवित्र होती है अथवा आत्मा का पवित्र होना ही पुण्य है तथा पुण्य के फल से पंचेन्द्रिय जाति, मानव भव, मन, बुद्धि आदि मिलते हैं, त्याग का बल मिलता है, जिसके बिना कोई भी जीव मुक्ति नहीं पा सकता, क्योंकि इनके बिना वह साधना नहीं कर सकता। जैसा कि कहा है
इह जीविए राय ! असासयम्मि, धणियं तु पुण्णाइं अकुव्वमाणो। से सोयइ मच्चु-मुहोवणीए, धम्मं अकाऊण परंमि (सि) लोए।।
-उत्तराध्ययन सूत्र, अध्ययन 13, गाथा 21 हे राजन् ! इस अशाश्वत मानव जीवन में जो प्रचुर पुण्य कर्म नहीं करता है वह मृत्यु के मुख में पहुँचने पर सोच (चिन्ता-शोक) करता है और वह धर्म न करने के कारण परलोक में भी पछताता है। पुण्य सब पापों का नाशक एवं उत्कृष्ट मंगल है
पुण्य का उपार्जन संयम रूप निवृत्तिपरक साधना से हो अथवा दया, दान, परोपकार रूप प्रवृत्तिपरक साधना से हो, वह मुक्ति में सहायक होता है, बाधक नहीं। जैसा कि कहा है
नमो अरिहंताणं, नमो सिद्धाणं, नमो आयरियाणं,
नमो उवज्झायाणं, नमो लोए सव्वसाहूणं। एसो पंच नमोक्कारो, सव्वपावप्पणासणो,
मंगलाणं च सव्वेसिं, पढमं हवइ मंगलं।। अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय एवं साधु इन पाँचों को नमस्कार करने रूप पुण्य सब पापों का नाश करने वाला है तथा सर्वोत्कृष्ट मंगल है अर्थात् नमस्कार रूप पुण्य मुक्तिप्रदाता एवं कल्याणकारी है।