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भूमिका
XLI
होता है और शुभ की ओर बढ़ना ही शुद्ध की ओर बढ़ना है। जिस प्रकार वस्त्र की शुद्धि के लिए पहले साबुन आदि लगाना होता है, साबुन आदि द्रव्य वस्त्र की विशुद्धि में साधक ही होते हैं बाधक नहीं। उसी प्रकार निष्काम भाव से किये गये लोक मंगल के कार्य भी मुक्ति में साधक होते हैं बाधक नहीं। जिस प्रकार वस्त्र की शुद्धि - प्रक्रिया में भी वस्त्र से मैल को निकालने का ही प्रयत्न किया जाता है। साबुन तो मैल के निकालने के साथ ही स्वत: ही निकल जाता है, उसी प्रकार चाहे पुण्य प्रवृत्तियों के निमित्त से आस्रव होता भी हो, किंतु वह आस्रव आत्म-विशुद्धि का साधक ही होता है। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि शुद्धोपयोग की अवस्था में पुण्य के आस्रव से स्थिति बंध नहीं होता। तीर्थङ्कर अथवा केवली सदैव शुद्धोपयोग में ही रहते हैं, किंतु उनको भी अपनी योग प्रवृत्ति के द्वारा वेदनीयकर्म का आस्रव जो पुण्य प्रकृति का आस्रव है या -' - 'ईर्यापथिक आस्रव है, होता ही रहता है। इसका फलित यह है कि शुभोपयोग शुद्धोपयोग में बाधक नहीं है, अपितु साधक ही है। जैन साधना का क्रम यही है कि व्यक्ति अशुभ से शुभ की ओर और शुभ से शुद्ध की ओर बढ़े। अतः शुभोपयोग और शुद्धोपयोग परस्पर विरोधी नहीं हैं, शुभोपयोग के सद्भाव में शुद्धोपयोग संभव है। वस्तुतः शुद्धोपयोग में बाधक वे ही तथाकथित शुभ प्रवृत्तियाँ होती हैं जो फलाकांक्षा से या रागात्मकता से युक्त होती हैं। वस्तुत: तो वे फलाकांक्षा या रागात्मकता के कारण अशुभ ही होती हैं। किंतु लोक व्यवहार में अथवा उपचार से उन्हें शुभ कहा जाता है। उदाहरण के रूप में कोई व्यक्ति अपने अहं की संतुष्टि के लिए अर्थात् मान कषाय की पूर्ति के लिए दान देता है। बाहर से तो उसका यह कर्म शुभ दिखाई देता है, किंतु वस्तुत: वह मान कषाय का हेतु होने के कारण अशुभ ही है। शुभ कर्म दो प्रकार के होते हैं। एक वे जो बाह्य प्रतीति के रूप में तो शुभ दिखाई देते हैं, किंतु वस्तुतः शुभ होते नहीं हैं, मात्र व्यवहार में उन्हें शुभ कहा जाता है। दूसरे, वे जो निष्काम भाव से मात्र दूसरों के प्रति अनुकंपा या