________________
XLVI
पुण्य-पाप तत्त्व
(7) पुण्य केवल आस्रव या बंध रूप नहीं है, अपितु संवर और निर्जरा
रूप भी है, अत: पुण्य हेय नहीं उपादेय है। पुण्य-पाप कर्म का संबंध उनकी फलदान शक्ति-अनुभाग से है, स्थिति बंध से नहीं है।
जैन दर्शन में वीतरागता की उपलब्धि के लिए रागादि पापों को ही त्याज्य कहा है, पुण्य को नहीं। अत: आस्रव, संवर, निर्जरा, मोक्ष आदि तत्त्वों के भेद-उपभेद का प्रतिपादन पाप को लक्ष्य में
रखकर ही किया है, पुण्य को लेकर नहीं। (10) जैन कर्म-सिद्धांत में जीव के स्वभाव व गुण का घातक घाती कर्मों
को ही कहा है, अघाती कर्मों को नहीं। अघाती कर्मों की असाता वेदनीय, नीच गोत्र, अनादेय, अयशकीर्ति आदि पाप प्रकृतियों की सत्ता भी जीव के केवलज्ञान, केवलदर्शन आदि किसी भी गुण की उपलब्धि में बाधक नहीं है। अत: पुण्य प्रकृतियों को जीव के किसी भी गुण की उपलब्धि में एवं वीतरागता में बाधक मानना सिद्धांत विरुद्ध है। पुण्य-पाप दोनों विरोधी हैं। अत: जितना पाप घटता है उतना ही पुण्य बढ़ता है। पुण्य के अनुभाग की वृद्धि पाप के क्षय की सूचक है। पुण्य के अनुभाग के घटने से पाप कर्मों के स्थिति और अनुभाग
बंध नियम से बढ़ते हैं। (12) पुण्य के अनुभाग का किसी भी साधना से यहाँ तक कि केवली
समुद्घात से भी क्षय नहीं होता है। चारों अघाती कर्मों की पुण्य प्रकृतियों का उपार्जन चारों कषायों के घटने से व क्षय से होता है।
(13)