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XLVII
भूमिका (14) पुण्य त्याज्य नहीं है, पुण्य के साथ रहा हुआ फलाकांक्षा निदान,
भोक्तृत्वभाव कर्तृत्वभाव रूप कषाय व पाप त्याज्य है। जैसे गेहूँ के
साथ रहे हुए कंकर-मिट्टी एवं भूसा त्याज्य हैं, गेहूँ त्याज्य नहीं है। (15) पुण्य का अनुभाग बढ़कर चतु:स्थानिक हुए बिना सम्यग्दर्शन और
उत्कृष्ट हुए बिना केवलज्ञान नहीं होता है। अत: पुण्य आत्मविकास में, साधना में बाधक व हेय नहीं है।
यह तो हमने पण्डित प्रवर लोढ़ाजी की स्थापनाओं की संक्षिप्त झलक दी है। उन्होंने प्रस्तुत कृति के अंत में ऐसे एक सौ इक्कीस तथ्य प्रस्तुत किये हैं, जो पुण्य की उपादेयता को सिद्ध करते हैं। वस्तुत: उनकी ये स्थापनाएँ किसी पक्ष-विशेष के खण्डन-मण्डन की दृष्टि से नहीं, अपितु जैन कर्म सिद्धांत के ग्रंथों के गंभीर आलोडन का परिणाम है। वे मात्र विद्वान् नहीं हैं, अपितु साधक भी हैं। उनके द्वारा इस कृति की रचना का प्रयोजन उनके अन्तस् में प्रवाहमान करुणा की अजस्रधारा ही है। उनका प्रतिपाद्य मात्र यही है कि धर्म और आध्यात्मिकता के नाम पर सेवा और करुणा की सद्प्रवृत्तियों का समाज से विलोप नहीं हो। क्योंकि मनुष्य की मनुष्यता इसी में है कि वह दूसरे प्राणियों का रक्षक बने, उनके सुख-दुःख का सहभागी बने।
___वस्तुत: मैं पूज्य लोढ़ाजी का अत्यन्त आभारी हूँ कि उन्होंने भूमिका लेखन का दायित्व मुझे देकर उनकी इस गहन गंभीर तात्त्विक कृति में अवगाहन का अवसर दिया।
___ अन्त में मैं पुन: पूज्य पं. कन्हैयालालजी लोढ़ा का विद्वज्जगत् की ओर से अभिनन्दन करते हुए यही अपेक्षा करूँगा कि वे ऐसे चिंतनपूर्ण किंतु भावप्रवण लेखनों के माध्यम से हमारा मार्गदर्शन करते रहें। इसके साथ ही उनके शिष्य और मेरे अनुजतुल्य तथा प्रस्तुत कृति के सम्पादक डॉ. धर्मचन्द