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पुण्य तत्त्व : स्वरूप और महत्त्व
'अन्नपुण्णे, पानपुण्णे, लयनपुण्णे, सयनपुण्णे, वत्थपुण्णे, मनपुण्णे, वयणपुण्णे, कायपुण्णे, नमोक्कारपुण्णे।'
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-ठाणांग सूत्र, नवम ठाणा
अर्थात् अन्न पुण्य, पान पुण्य, लयण पुण्य, शयन पुण्य, वस्त्र पुण्य, मन पुण्य, वचन पुण्य, काय पुण्य, नमस्कार पुण्य ये नव प्रकार के
पुण्य हैं। इन नौ प्रकार के पुण्यों में प्रथम पाँच पुण्य वस्तुओं के दान से संबंधित हैं। प्राणियों एवं मानव की मूलभूत आवश्यकताएँ पाँच हैं-भूख, प्यास, निवास, विश्राम और वस्त्र। इन आवश्यकताओं की पूर्ति न होने से प्राणी दु:ख रहते हैं । इन दुःखों को दूर करने के लिए भूखे को भोजन खिलाना, प्यासे को पानी पिलाना, रहने को स्थान देना, विश्राम में सहायता करना, पहनने को वस्त्र देना ये पाँच पुण्य वस्तुओं से संबंधित हैं। मन से दूसरों का भला विचारना व सच्चिंतन करना मन पुण्य है। वचन से हितकारी वचन बोलना व सत् चर्चा करना वचन पुण्य है। काय से साधु, रोगी, बालक, वृद्ध एवं असहाय लोगों की सेवा करना काय पुण्य है। सब प्राणियों के प्रति नम्रता का व्यवहार करना नमस्कार पुण्य है।
उपर्युक्त सद्प्रवृत्तियों में दूसरों के हित के लिए अपने विषय-सुखों की स्वार्थपरता का त्याग करना होता है। त्याग से आत्मा का उत्थान होता है, आत्मा पवित्र होती है । अत: इन्हें पुण्य कहा जाता है। यही कारण है कि जितना संयम, त्याग तप बढ़ता जाता है, उतनी ही पुण्य के फल में वृद्धि होती जाती है।
'पुण्य' के विभिन्न रूप
'पुण्य' शब्द का प्रयोग अनेक रूपों में होता है यथा-पुण्यतत्त्व, पुण्य भाव, पुण्य प्रवृत्ति, पुण्य आस्रव, पुण्य कर्मों का बंध (प्रकृति, स्थिति,