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भूमिका
(3)
XLV
होती है, जबकि मंद कषाय से भी अशुभ परिणाम ही उत्पन्न होते हैं और उनसे पाप तत्त्व की अभिवृद्धि होती है। इस प्रकार कषाय की मंदता पुण्य का हेतु है, जबकि मंद कषाय पाप के हेतु हैं। कषाय की मंदता से हुई पुण्य की अभिवृद्धि आत्म-विशुद्धि का हेतु होने से मोक्ष की उपलब्धि में साधक है। अतः पुण्य मोक्ष का साधक होने से उपादेय है, जबकि पाप मोक्ष में बाधक होने से हेय है।
(4) पुण्य पाप का प्रक्षालन करता है, अत: पुण्य सोने की बेड़ी न होकर सोने का आभूषण है। बेड़ी बंधन में डालती है, आभूषण नहीं । बेड़ी बाध्यतावश धारण करनी पड़ती है, जबकि आभूषण स्वेच्छा से धारण किया जाता है । अत: बेड़ी से हम इच्छानुसार मुक्त नहीं हो सकते हैं, किंतु आभूषण से इच्छानुसार मुक्त हो सकते हैं । अत: आभूषण रूप पुण्य के क्षय का कोई उपाय किसी साधना में निर्दिष्ट नहीं है।
(5) दया, दान, करुणा, वात्सल्य, सेवा आदि सद्प्रवृत्तियों से बंध नहीं होता है। बंध तो तभी होता है, जब कर्त्ता में फलाकांक्षा, निदान कर्तृत्व या भोक्तृत्व रूप कषाय परिणाम हो । संक्षेप में शुभयोग के साथ रहा हुआ कषाय भाव ही उन कर्मों में स्थिति बंध का कारण होता है। शुभ योग कर्मबंध का कारण नहीं होता ।
(6) पुण्य स्वभाव है, स्वभाव का नाश नहीं होता है। पुन: जो स्वभाव होता है, वही धर्म है। पुण्य स्वभाव है अतः वह धर्म है। पुनः स्वभाव का त्याग संभव नहीं है, अतः पुण्य त्याज्य नहीं है। यही कारण है कि तीर्थङ्कर केवलज्ञान की प्राप्ति के पश्चात् भी लोककल्याण या प्राणियों के प्रति अनुकम्पा की दृष्टि से ही तीर्थ प्रवर्तन, धर्मोपदेश आदि प्रवृत्ति करते हैं । अतः पुण्य कभी भी त्याज्य नहीं है, वह सदैव ही उपादेय है।