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पुण्य-पाप तत्त्व
“परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम्” के अनुसार जिससे दूसरों को दु:ख हो, पीड़ा पहुँचे, वह पाप है और जो दूसरों का हित करे, उपकार करे, वह पुण्य है। इस प्रकार परोपकार को ही धर्म कहा जाता है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने भी कहा है
परहित सरिस धरम नहिं भाई । पर पीड़ा सम नहिं अधमाई ||
केवल उन्हीं पुण्यकर्मों को धर्म की कोटि में नहीं लिया जा सकता जो फलाकांक्षा या ममत्व बुद्धि से प्रेरित होते हैं। जो भी लोकमंगल के कार्य मात्र कर्त्तव्य बुद्धि से किये जाते हैं, जिनके पीछे किसी फलाकांक्षा या रागद्वेष का तत्त्व नहीं होता, वे धर्म से अभिन्न ही हैं, क्योंकि उनमें जो ईर्यापथिक आस्रव और ईर्यापथिक बंध होता है वह वस्तुत: बंध नहीं है। निष्काम पुण्य प्रवृत्तियाँ शुभ भी होती हैं और शुद्ध भी शुभ शुद्ध का विरोधी नहीं होता है, क्योंकि पुण्य का कार्य आत्मविशुद्धि रूप प्रवृत्तियाँ हैं, वे धर्म ही हैं।
शुभ एवं शुद्ध अविरोधी है
सामान्यतया यह समझा जाता है कि पुण्य प्रकृतियों और निवृत्तिमूलक धर्म-साधना में अथवा शुभ और शुद्ध से परस्पर विरोध है, किंतु यह एक भ्रान्त अवधारणा है। शुद्ध दशा की उपलब्धि के लिए शुभ की साधना आवश्यक होती है, जैसे कपड़े के मैल को हटाने के लिए साबुन आवश्यक है। हम यह जानते हैं कि अशुभ प्रवृत्ति से निवृत्ति तभी संभव होती है जब शुभ योग में प्रवृत्ति होती है। अशुभ से बचने के लिए शुभ में अथवा पाप प्रवृत्तियों से बचने के लिए पुण्य प्रवृत्तियों में जुड़ना आवश्यक है। हमारी चित्तवृत्ति प्रारंभिक अवस्था में निर्विकल्प अवस्था को प्राप्त नहीं हो सकती । चित्त विशुद्धि के लिए सर्वप्रथम चित्त में लोक मंगल या लोक कल्याण की भावना को स्थान देना होता है। अशुभ से शुभ की ओर बढ़ना